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यही आत्मसाक्षात्कार है

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।  (गीताः 3.27)

प्रकृति में ही गुण कर्म हो रहे हैं लेकिन अहंकार से जो विमूढ़ हो गये, वे अपने को कर्ता-भोक्ता, सुखी-दुःखी मानते हैं। भाव आये तो मैं दुःखी हूँ या मैं सुखी हूँ यह आयेगा अथवा तो ‘मेरे को यह करना है’ या ‘मैंने यह कर लिया….’ आयेगा। लेकिन आप समझना, ‘यह सब मन का खेल है’ तो आप बहुत ऊँची अवस्था में चले जाओगे। उस अवस्था में ऐसा नहीं कि सुन्न- मुन्न हो जाये, आलसी हो जाय, नींद आ जाय…. नहीं।

ऊठत बैठत ओई उटाने, कहत कबीर हम उसी ठिकाने।

 

ब्राह्मी स्थिति ऐसी ऊँची होती है। फिर भगवान आपके मित्र हो जायेंगे  जैसे घटाकार वृत्ति होने से घड़ा दिखेगा, सकोराकार वृत्ति से सकोरा (मिट्टी का छोटा प्याला) दिखेगा, ऐसे ही ब्रह्म परमात्मा के विषय में सुनते हैं तो ब्रह्माकार वृत्ति बनती है। यह संसार इन्द्रियों से दिखता है लेकिन ब्रह्म-परमात्मा सारी इन्द्रियों को देखने की सत्ता देता है तो वह कैसे दिखेगा ?

इन्द्रियों से जो दिखता है वह प्रकृति है, परिवर्तनशील है, इन्द्रियाँ जिसकी सत्ता से देखती हैं वह आत्मा ब्रह्म है और वह हम हैं। ऐसा साक्षात्कार हो जाय तो फिर भगवान भी आपके मित्र हो जायेंगे। जिस भाव से भगवान को देखो, उस भाव में अपना संकल्प पूरा हो जायेगा।

मेरे गुरु जी (साँईं श्री लीलाशाह जी) सत्संग करके कमरे में चले गये, फिर थोड़ी देर बाद बाहर देखा तो सत्संगी खड़े हैं, बोलेः “अभी तक तुम गये नहीं ! रात हो गयी।”
सत्संगी बोलेः “साँईं ! बरसात पड़ रही है न, भगवान को कौन बोले !”
“अरे, तुम्हारा भगवान है, मेरा तो बेटा लगता है !”
सत्संगी जरा नजदीक के थे, बोलेः “साँईं ! बेटे को बोल दो न, बरसात बंद कर दे।”
“बेटे ! बरसात बंद कर दो।”

बरसात बंद हो गयी और वे प्रणाम करके भागे घर। वे लोग घर पहुँचे तो फिर चालू हो गयी बरसात। भगवान को कोई बाप मानता है, कोई बेटा मानता है, कोई सखा और कोई सुहृद मानता है और वास्तव में बेटा भी वही परमात्मा है, बाप भी वही है। अगर वह बेटा नहीं बनता तो उसी में बाप कैसे बनेगा ? वही बेटा बन के बाप बनता है। उसको बेटा मानो तो नाराज नहीं होता। और ऐसा नहीं है कि मेरे गुरु जी भगवान को बेटा-ही-बेटा मानते थे, कभी भगवान को बेटा मान लेते थे तो कभी भगवान के बेटे हो जाते थे।

भगवान के साथ, ब्रह्म के साथ गुरु जी की एकाग्रता थी। तभी उनके संकल्प से आवरण भंग हुआ और आसुमल से आशाराम बन गये। नहीं तो 12 साल मैं तपस्या करता तो इतना नहीं मिलता, जितना उन शहंशाह (साँईं लीलाशाह जी) ने दे डाला ! 12-12 साल के तीन अनुष्ठान करता तो भी काम नहीं होता।

गुरुजी ने एक सेवक को शास्त्र पढ़ने को दिया, मेरे को बोलेः “ध्यान से सुन !”
ऐ ऐ…. आनंद-आनंद…. आवरण भंग ! जैसे लवण की पुतली को समुद्र में डुबा दिया, वह गल गयी और नाचने लगी समुद्र हो के। इतना आनंद, ऐसी ब्रह्माकार वृत्ति कि जहाँ तक नजर जाती है उतने में ही मैं नहीं हूँ, उसके पार भी हूँ, नजर तो सीमित है, मैं असीम हूँ, ऐसा अनुभव ब्रह्मवेत्ता को ही होता है।

योगी तो हृदय में एकाग्र होता है, कर्मी को कर्म में निष्कामता होती है, भक्त भाव में रहता है लेकिन यह भाव भी नहीं है, योग भी नहीं है, कर्म भी नहीं है। ‘सब हो-हो के बदल जाते हैं, सृष्टियों का महाप्रलय हो जाता है फिर भी जो ज्यों-का-त्यों रहता है, वही मैं हूँ’ – ऐसा अनुभव हो जाता है। वह शब्दों में नहीं आयेगा, शब्दों में कुछ भी आयेगा तो थोड़े-में-थोड़ा। उपनिषद कहती हैः

यतो वाचो निवर्तन्ते। अप्राप्य मनसा सह।

जहाँ से मन के सहित वाणी आदि इन्द्रियाँ उसे न पाकर लौट आती हैं…. मन से दृश्य दिखेगा, द्रष्टा मन से नहीं दिखेगा। जो मन से दिखेगा वह आधिभौतिक या तो आधिदैविक होगा। अध्यात्म थोड़ा-सा दिखेगा – आनंद, समाधि लेकिन आनंद आया कि नहीं आया, समाधि लगी कि नहीं लगी कौन जानता है ? वह मैं हूँ।’ और मजहबों एवं सम्प्रदायों में यह ज्ञान नहीं मिलता तथा हिन्दू धर्म में भी सभी सम्प्रदायों में नहीं मिलता। यह वेदांत सम्प्रदाय में मिलता है। हमारे गुरु जी वेदांती थे, भक्ति भी थी, योग भी था, कर्मयोग भी था लेकिन आखिर में…..

सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।

‘हे अर्जुन ! सम्पूर्ण कर्म और पदार्थ ज्ञान (तत्त्वज्ञान) में समाप्त हो जाते हैं।’ (गीताः 4.33)

 

ऐसे आत्मवेत्ता थे मेरे गुरु जी ! जिस पर ब्रह्मज्ञानी गुरु की छाया नहीं है वह चाहे हजारों वर्ष तपस्या कर ले, सोने की लंका पा ले, फिर वह बबलू है और जिनको ब्रह्मज्ञानी गुरु मिल गये, वे 40 दिन के अनुष्ठान से आसुमल में से आशाराम बापू बन गये। आशाओं के गुलाम नहीं, आशाओं के दास नहीं, आशाओं के राम !

तेनाधीतं श्रुतं तेन – उसने सब अध्ययन कर लिया…. तेन सर्वनुष्ठितम्। उसने सारे अनुष्ठान कर लिये…. येनाशाः पृष्ठतः कृत्वा नैराश्यमवलम्बितम्।। जिसने इच्छा वासना छोड़कर आशारहितता का सहारा लिया है। (हितोपदेशः 1.146)

पोथियों से ज्ञान नहीं लेना पड़े, अपना ज्ञान छलके। विषय-विकारों से सुख नहीं लेना पड़े, अपना सुख चमचम चमके और टॉनिकों से शक्ति नहीं लेने पड़े, अपनी शक्ति……!

आत्मसाक्षात्कारी कैसा होता है ?

 

‘गुरु और भगवान जैसे भी हैं (निराकार, साकार, सर्वव्यापक, अगम्य, अगोचर), हमारे हैं बस !’ – इससे साधक के चित्त का सारा कचरा धुल जाता है, सारी फरियाद, सारी कमजोरियाँ निकल जाती हैं। भगवान और गुरु के प्रति अपनत्व रखो बस, बहुत सारी गंदगी अपने-आप साफ हो जायेगी। मेरे को तो लगता है कि मेरे साधकों का बड़ा भाग्य है कि हयात आत्मसाक्षात्कारी गुरु मिले हैं। आत्मसाक्षात्कारी कैसा होता है ? कितने लांछन, कितना ये…. और अंदर कितनी समता, कितनी मस्ती ! यही आत्मसाक्षात्कार है। आपको दुःख छुए नहीं। जीवन्मुक्ति है यह, जीते जी मुक्तात्मा ! इसको ‘अविकम्प योग‘ बोलते हैं।

श्रीकृष्ण युद्ध के सूत्रधार हैं, घोड़ों की रास पकड़ी है, फिर भी निश्चिंत। हम भी अनेक सेवा प्रवृत्तियों के सूत्रधार हैं फिर भी निश्चिंत है। आत्मज्ञान बहुत बड़ा वैभव है। ‘मैं, ‘मैं’ (आत्मा-परमात्मा) हूँ – यह समझ हो जाय, इसी का नाम आत्मसाक्षात्कार है। ऐसा नहीं कि भड़ाका-धड़ाका हो’, ऐसा नहीं है। समता आ गयी, परिच्छिन्नता मिटती गयी, देहाध्यास मिट गया-

देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि।

देहाध्यास गल जाय और परमात्म-तत्व को जान ले। जैसे तरंग अपने को पानी जान ले, ऐसे ही जीव अपने को ब्रह्म जान ले। हमारे गुरु जी ने तो 19 साल में साक्षात्कार कर लिया, हमने तो साढ़े 22 साल के बाद किया। हमारे गुरु जी हमारे से ज्यादा बहादुर थे, अब तुम भी बहादुर बन जाओ !

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