अवतरण दिवस अर्थात् विश्व सेवा-सत्संग दिवस
प्रातःस्मरणीय पूज्य संत श्री आशारामजी बापू ऐसे महापुरुष हैं जिन्होंने अपने शिष्यों को भक्तियोग और ज्ञानयोग के साथ-साथ कर्मयोग भी सिखाया है । पूज्यश्री का कहना है कि कर्म करने की कला जान लो और उसे कर्मयोग बनाओ तो कर्म आपको बाँधनेवाले नहीं, भगवान से मिलानेवाले हो जायेंगे । भगवान ने हमें जो जानने, मानने और करने की शक्तियाँ दी हैं, उनका सदुपयोग करो । परहित में सत्कर्म करने से करने की शक्ति का सदुपयोग होता है ।
पूज्य बापूजी के इन्हीं वचनों का आदर करते हुए पूज्यश्री के शिष्यों द्वारा पूरे भारत में आपका अवतरण-दिवस हर वर्ष ‘सेवा-सत्संग दिवस’ के रूप में मनाया जाता है । इस अवसर पर देश-विदेश में फैले आश्रम-संचालित हजारों बाल संस्कार केन्द्रों में विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास हेतु विभिन्न कार्यक्रम किये गये और भोजन-प्रसाद का वितरण किया जाता है । संत श्री आशारामजी आश्रम की 425 शाखाओं एवं 1400 सेवा समितियों द्वारा अपने-अपने गाँवों, नगरों, शहरों में आध्यात्मिक जागृति हेतु हरिनाम संकीर्तन यात्राएँ निकाली जाती है । साथ ही झुग्गी-झोपड़ियों में गरीब-गुरबों को, बेसहारा विधवाओं को, अनाथालयों में अनाथों को, आदिवासी क्षेत्रों में अभावग्रस्तों को और अस्पतालों में मरीजों को अन्न, फल, औषधि, वस्त्र आदि जीवनोपयोगी वस्तुएँ तथा आर्थिक सहायता प्रदान कर कई-कई प्रकारों से इस ‘संत अवतरण-दिवस’ पर सेवा-सुवास महकायी जाती है । सत्साहित्य-वितरण, बच्चों में नोटबुकें, पेन, पेंसिल आदि का वितरण, ‘निःशुल्क चिकित्सा शिविरों’ का आयोजन, व्यसनमुक्ति अभियान, ‘युवा सेवा संघ’ द्वारा युवाओं की उन्नति के लिए तथा ‘महिला उत्थान मंडल’ द्वारा नारी उत्थान के लिए विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता है । अवतरण-दिवस से शुरू करके पूरी गर्मियों में बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन इत्यादि विभिन्न सार्वजनिक स्थलों पर निःशुल्क छाछ वितरण केन्द्र, जल प्याऊ, शीतल शरबत वितरण केन्द्र आदि का भी शुभारम्भ किया जाता है ।
‘आओ, संसाररूपी कर्मभूमि को कर्मयोग का अवलम्बन लेकर नंदनवन बनायें ।‘
करुणा-वरुणालय पूज्य बापूजी ने जब देखा कि गरीब वर्ग के लोग काम करने जाते हैं तो साथ में जो भोजन लेकर जाते हैं, वह दोपहर तक ठंडा हो जाता है । इससे वे मंदाग्नि आदि पेट की बीमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं । यह जानकर सबको आत्मस्वरूप जाननेवाले बापूजी का हृदय करुणा से भर आया और उन्होंने देश के गरीबों में गर्म भोजन के डिब्बों का प्रसादरूप में वितरण शुरू करवा दिया ।
इस प्रकार ‘वासुदेवः सर्वम्’ – यह पूरी सृष्टि परमात्मा का ही प्रकट स्वरूप है – इस भाव से दीन-दुःखियों, जरूरतमंदों एवं सम्पूर्ण समाज की निःस्वार्थ भाव से सेवा करके संत श्री आशारामजी बापू एवं उनके करोड़ों अनुयायी कर्म को कर्मयोग बनाने की कला का प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं । साथ ही ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः…’ – ‘सबका मंगल, सबका भला’ की भावना को अपने जीवन में सुदृढ़ बनाते हुए समाज में एक सुसंदेश फैला रहे हैं । अद्वैत वेदांत के सर्वोच्च आध्यात्मिक सिध्दांत को रोजमर्रा के जीवन में प्रत्यक्ष उतारनेवाले ये सद्गुरु के निःस्वार्थ सेवक मानो समाज को संदेश दे रहे हैं – ‘आओ, संसाररूपी कर्मभूमि को कर्मयोग का अवलम्बन लेकर नंदनवन बनायें ।’
आध्यात्मिक गुरु आशारामजी बापू के अनुयायियों ने एक ओर तो अपने गुरुदेव से प्राप्त कर्मयोग की शिक्षा को व्यावहारिक रूप देकर जनसेवा अभियान चला रखा है तो दूसरी ओर ज्ञानयोग और भक्तियोग के पोषण हेतु महाराजश्री के अवतरण दिवस से अवतरण दिवस पूरे वर्ष भर सत्संग, ध्यान, भजन तथा संकीर्तन यात्राएँ आदि का भी विश्वस्तरीय नियोजन किया जा रहा है ।
अपना जन्म-कर्म दिव्य बनाओ
भगवान व भगवान को पाये हुए संत करूणा से अवतरित होते हैं इसलिए उनका जन्म दिव्य होता है । सामान्य आदमी स्वार्थ से कर्म करता है और भगवान व संत लोगों के मंगल की, हित की भावना से कर्म करते हैं । वे कर्म करने की ऐसी कला सिखाते हैं कि कर्म करने का राम मिट जाय, भगवदरस आ जाय, मुक्ति मिल जाय । अपने कर्म और जन्म को दिव्य बनाने के लिए ही भगवान व महापुरुषों का जन्मदिवस मनाया जाता है ।
वासना मिटने से, निर्वासनिक होने से जन्म-मरण से मुक्ति हो जाती है । फिर वासना से प्रेरित होकर नहीं, करूणा से भरकर कर्म होते हैं । वह जन्म-कर्म की दिव्यतावाला हो जाता है, साधक सिद्ध हो जाता है । भगवान कहते हैं-
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोઽर्जुन ।।
ʹहे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं- इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता किंतु मुझे ही प्राप्त होता है ।ʹ (गीताः 4.9)
मंगल संदेश
तुम अज हो, तुम्हारा जन्म नहीं होता, शरीर का जन्म होता है । अपने को अजरूप, नित्य शाश्वत ऐसा जो जानता है, उसके जन्म और कर्म दिव्य हो जाते हैं ।
अपने कर्मों को देह व परिवार की सीमा में फँसाओ मत बल्कि ईश्वरप्रीति के लिए बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय लगाकर कर्म को कर्मयोग बनाओ । शरीर को ʹमैंʹ, मन को ʹमेराʹ तथा परिस्थितियों को सच्ची मानकर अपने को परेशानियों में झोंको मत । ʹशरीर बदलता है, मन बदलता है, परिस्थितियाँ बदलती हैं, उनको मैं जान रहा हूँ । मैं हूँ अपना-आप, सब परिस्थितियों का बाप ! परिस्थितियाँ आती हैं – जाती हैं, मैं नित्य हूँ । दुःख-सुख आते जाते हैं, मैं नित्य हूँ । जो नित्य तत्त्व है, वह शाश्वत है और जो अनित्य है, वह प्रकृति का है ।ʹ
…तो देशवासियों को, विश्ववासियों को यह मंगल संदेश है कि तुम अपने जन्म-कर्म को दिव्य बनाओ । अपने को आत्मा मानो और जानो ।
1 thought on “अवतरण दिवस अर्थात् विश्व सेवा-सत्संग दिवस”
jai ho