‘श्रीमद् भागवत’ में पाँच महान महिलाओं की बात आती है :
पहली भक्त महिला है द्रौपदी ।
द्रौपदी भगवान को बोलती है : “प्रभु ! आपको मेरी सहायता में रहना ही पड़ेगा क्योंकि आप मेरे सखा हों, मेरे संबंधी हों, मेरे स्वामी भी हों और मेरे सर्वस्व हो । मैं आपको नहीं पुकारूँगी तो किसको पुकारुँगी ? और आप मेरी मदद नहीं करेंगे तो कौन करेगा ?”’ ऐसी भगवान की भक्त हो गयी द्रौपदी !
दुःख तो भक्त के जीवन में भी आता है लेकिन भक्त के जीवन में दुःख आते हुए भी समता कितनी गजब की होती है ! द्रौपदी के बच्चे अभी जवान भी नहीं हुए थे, सोये पड़े हैं और पाँचौं-के-पाँचों की गर्दन काट दी अश्वत्थामा ने । द्रौपदी बहुत दुःखी होने लगी, विलाप करने लगी । अर्जुन और श्रीकृष्ण को बड़ा भारी गुस्सा आया । अर्जुन ने द्रौपदी से कहा : “अश्वत्थामा जहाँ कहीं भी होगा, उसको हम जिंदा पकड़कर लायेंगे और जिंदा हाथ में नहीं आया तो उसकी लाश लायेंगे ।”
अश्वत्थामा तो भागता फिरे लेकिन कृष्ण और अर्जुन का पौरुष ऐसा था कि अश्वत्थामा पकड़ में आ गया । अश्वत्थामा को पकड़कर द्रौपदी के सामने लाये कि “तुम्हारे बच्चों का यह हत्यारा है । निर्दोष बच्चे सोये थे, उनकी गर्दन काट दी पांडवों का वंश नष्ट करने के लिए । अब हम इसकी गर्दन काटते हैं और इसके सिर पर पैर रखकर तुम स्नान करो और अपना शोक मिटाओ ।” लेकिन द्रौपदी तो भगवान की भक्त है, उसकी सुझबुझ कितनी ऊँची हैं !
क्या बोलती है- “मुच्यतां मुच्यतामेष…. छोड़ दो, इसे छोड़ दो । मेरे बच्चे मरे हैं तो मैं रो रही हूँ । अब दंड देने के लिए हम इसे मारेंगे तो इसके मरने पर इसकी माँ- द्रोणाचार्य कि पत्नी कृपी रोयेगी । अभी मैं एक नारी रो रही हूँ फिर दूसरी रोयेगी, तो इससे क्या प्राप्त होगा ?”
दंड देने का बल भी है लेंकिन सामनेवाला दु:खी न हो और अपने दुःख को नियंत्रण में रखकर पचा ले, ऐसा है भगवान की भक्त द्रौपदी का चरित्र !
दूसरी महिला है कुंता देवी ।
श्रीकृष्ण कहीं जा रहे थे, प्रसन्न होकर कुंता महारानी को पूछा : कुंता देवी ! कुछ माँगना है तो मांग लो ।” कुंता देवी कहती हैं कि “भगवान ! आप अगर प्रसन्न हैं और कुछ देना चाहते हैं तो हमको विपदा दो,कष्ट दो ।
श्रीकृष्ण : “ऐसा तो दुनिया में कोई माँगता है – हमको विपदा दो, कष्ट दो !
कुंता महारानी कहती हैं: “लाक्षागृह में पांडव फँसे थे, कष्ट था तथा जब भीम को विष दिया गया तब भी आपने रक्षा की । दुर्वासा ऋषि के शाप से बचाने के लिए भी आप आये । दुर्वासाजी ने प्रतिज्ञा की कि “भोजन नहीं मिलेगा तो शाप देंगे ।’ आपने अक्षयपात्र से एक साग का तिनका खाकर सबका पेट भर दिया । अर्जुन पर जब शत्रु के बाणों कि बहुत अधिक बौछार होने लगती तो आप वहाँ खड़े हो जाते और उनका चित्त मोहकर अपने में लगाते । जब-जब दुःख आये, तब-तब आपका स्मरण हुआ और आपकी कृपा मिली । तो दुःख अच्छा है । दुःख मिलता है तो आपसे प्रार्थना करते हैं, आपकी शरण आते हैं, आपका दर्शन मिलता है और आप हमारी सहायता करते हैं । हमको तो ऐसा दुःख मिले कि आपका बार-बार सुमिरन हो ।”
संत कबीरजी कहते हैं:
सुख के माथे सिल पड़े, जो नाम हृदय से जाय । बलिहारी वा दुःख की, जो पल-पल नाम जपाय ।।
यह भागवत में दूसरी महान नारी का चरित्र आता है जो भगवान की स्मृति, भगवान की प्रीति, भगवदभाव को बढ़ाने के लिए भगवान से दुःख माँगती है । कितनी दिव्य आत्मा है ।
तीसरी आर्त भक्त महिला है उत्तरा ।
उत्तरा के गर्भ में बालक था और अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़कर गर्भस्थ शिशु को मारना चाहा । उत्तरा प्रार्थना करती है : “देवाधिदेव ! जगदीश्वर !! आप मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये । आपके अतिरिक्त मुझे अभय देनेवाला कोई नहीं है ।”
भगवान बोलते हैं : “क्या तू डरती है ?”
बोली : “नहीं, मैं मर जाऊँ तो कोई हरकत नहीं है लेकिन पांडवों का वंशज है यहाँ । लोग बोलेंगे कि देखो भगवान जिनके साथ में थे, उनके वंश में कोई पानी देनेवाला नहीं रहा । आपकी पवित्र कीर्ति को कलंक न लगे और आपके भक्त का नाश न हो । मेरे गर्भ के बालक को ब्रह्मास्त्र तो छोड़ेगा नहीं इसलिए मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ अपने लिए नहीं, आपके भक्त के लिए और आपके यश के लिए कृपा कर मेरे गर्भ की रक्षा करें ।”
भगवान बोलते हैं : “उत्तरा ! तो तुम भी मेरे को कुछ दो न !”
उत्तरा : “क्या दूँ ?”
“मैं तुम्हारे गर्भ में आता हूँ । तुम अपने गर्भ में मेरे को जगह दो ।” भगवान के यश और भक्त की रक्षा के लिए अपने प्राण देने को तैयार है उत्तरा, कितनी पवित्र है !
भगवान भी ऐसी माताओं को खोजते हैं कि जो भक्त की रक्षा करना चाहती हैं, भगवान का यश बढ़ाना चाहती हैं, अपनी परवाह नहीं । ऐसी माता के गर्भ में वे भी निवास करना चाहते है ।
उत्तरा कहती है : “प्रभु ! जो आपकी मर्जी ।”
भगवान उत्तरा के गर्भ में माया से प्रवेश कर गये । ब्रह्मास्त्र आया, कुछ भी हुआ लेकिन भगवान चारों तरफ से उसके गर्भ के रक्षक थे । ब्रह्मास्त्र का वो आदर हो गया लेकिन परीक्षित मरे नहीं । और ये ही परीक्षित राजा ‘सात दिन मैं साँप काटेगा’ ऐसा शाप मिला तो भागवत की कथा सुनकर प्रजा के लिए भगवत्कथा का मार्ग खौलकर गये ।
चौथी महान आत्मा का वर्णन आता है – सुभद्रा का ।
सुभद्रा एक ऐसी महान आत्मा है, ऐसी महान भक्त माता है कि पुत्र अभिमन्यु की मृत्यु होती है तो न भगवान को प्रार्थना करती है, न भगवान को बुलाती है, न रक्षा चाहती है । कितनी विपदा आती है पर भगवान को कुछ बोलती नहीं !
सुभद्रा क्या बोलती है ; “कृष्ण सब ज़ानते हैं । जो भी करेंगे हमारे अच्छे के लिए करेंगे । माँ बच्चे का बुरा करती है क्या ? कृष्ण जानते है विपदाओं मैं हमारा वैराग्य बढ़ेगा और सम्प्रदाओं में हमारी सेवा बढ़ेगी । हम क्यों कृष्ण को बोले ऐसा करो, ऐसा करो ? जो तुम्हारी मर्जी ! जो तुमको अच्छा लगता है वही मुझे अच्छा लगता है । तुम जो करते हो अच्छा है ।” निर्गुण भक्त सुभद्रा तो सबसे आगे निकल गयी !
‘भागवत’ में जिन पाँचवीं सहनशील, परोपकारी महिला की बात आती है, वह है पृथ्वीमाता ।
उसका पुत्र है वृषभ, बैल (धर्म का प्रतीक) । उसे चार पैर होते हैं । सतयुग गया तो तप रूपी पैर कट गया । त्रेता गया तो ज्ञान, द्वापर गया तो यज्ञ । अब वह एक पैर पर खड़ा है। अपने पुत्र के तीन पैर कट गये उसका पृथ्वीदेवी को दुःख नहीं है फिर भी वह दु:खी है, क्यों ? क्योंकि पृथ्वी भगवान के रस बिना की हो गयी है ।
पृथ्वी कहती है : “लोगों के जीवन में भक्ति का रस नहीं है, प्रेम का रस नहीं है, माधुर्य नहीं है, आत्मसंतोष नहीं है इसलिए मैं दुःखी हूँ । प्रजा सत्य छोड़ चुकी है, यज्ञ और तप छोड़ चुकी है । दानं केवलं कलियुगे । अब दान का ही चौथा पैर रहा है मेरे पुत्र का । बस भगवान आ जायें, उनकी भक्ति आ जाय, लोगों में प्रीति आ जाय ।” पृथ्वीदेवी लोगों के भले के लिए दु:खी होती है ।
अब माताएँ चाहें तो द्रौपदी जैसी भक्ति कर सकती हैं अथवा तो कुंता माँ जैसी विपदाओं में भगवान की स्मृति का वरदान माँग सकती हैं । उत्तरा जैसा उद्देश्य बना सकती हैं । सुभद्रा जैसे – ‘भगवान जो करते हैं वाह ! वाह !!’ अथवा तो पृथ्वीदेवी जैसे ‘सबको भगवद् रस मिले, भगवत्शांति मिले, भगवन्नाम माधुर्य मिले ।’ – ऐसा ऊँचा चिंतन कर सकती हैं ।
भगवान की महिमा गाकर भक्ति करना प्रारम्भिक है लेकिन ‘भगवान सत् हैं, समर्थ हैं और हमारे परम हितैषी हैं । हमारे प्रार्थना करने से वे हमें मदद करते हैं ।’ – ऐसा पक्का निश्चय करने से शरणागति सिद्ध हो जाती है । फ़िर उस साधक के जीवन में दिव्य चमत्कार होते हैं, उसे दिव्य सुख मिलता है ।