ब्रह्मवादिनी सूर्या
ऋग्वेद के दशम मण्डल के ८५ वें सूक्त की ४७ ऋचाएँ इनकी हैं । यह सूक्त विवाह-सम्बन्धी हैं । आरम्भ की ऋचाओं में चन्द्रमा के साथ सूर्यकन्या सूर्या के विवाह का वर्णन है । हिंदू वेद-शास्त्रों में जितने आख्यान हैं, उन सबके आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों अर्थ होते हैं । वेद की ऋचाओं के भी तीन अर्थ हैं; परंतु वे केवल आध्यात्मिक अर्थरूप ही हैं; इतिहास नहीं हैं, ऐसी बात नहीं हैं । चन्द्रमा के साथ सूर्या के विवाह का आध्यात्मिक अर्थ भी है और उसका ऐतिहासिक तथ्य भी है । जहाँ चंद्र और सूर्य को नक्षत्र रूप में ग्रहण किया गया है, वहाँ आलंकारिक भाषा में आध्यात्मिक वर्णन हैं और जहाँ उनके अधिष्ठात्री देवता के रुप में लिया गया हैं, वहाँ प्रत्यक्ष ही वैसा व्यवहार हुआ है ।
सूर्या जब विदा होकर पति के साथ चली तब उसके बैठने का रथ मन के वेग के समान था । रथ पर सुन्दर चँदोवा तना था और दो सफ़ेद बैल जुते थे । सूर्या को दहेज में पिता ने गौ, स्वर्ण, वस्त्र आदि पदार्थ दिये थे । सूर्या के बड़े ही सुन्दर उपदेश हैं-
हे वधू ! इस पति-गृह में ऐसी वस्तुओं की वृध्दि हो, जो प्रजा को और साथ ही तुझको भी प्रिय हों । इस घर में गृह-स्वामिनी बनने के लिए तू जाग्रत हो । इस पति के साथ अपने शरीर का संसर्ग कर और जानने-पहचानने योग्य परमात्माको ध्यानमें रखते हुए दोनों स्त्री-पुरुष वृद्धावस्था तक मिलते और बातचीत करते रहें । हे बहू । तू मैले कपड़ों को फेंक दे; वेद पढ़नेवाले पुरुषों को दान कर । गंदे रहने, गंदे कपड़े पहनने, प्रतिदिन स्नान न करने से और आलस्य में रहने से भाँति-भाँतिके रोग हो जाते हैं । हे वधू ! सौभाग्य के लिये ही मैं तेरा पाणिग्रहण करता हूँ । पत्निरूप में मेरे साथ ही तू बूढ़ी होना ।
हे परमात्मा ! आप इस वधु को सुपुत्रवती और सौभाग्यवती बनावें । इसके गर्भ से दस पुत्र उत्पन्न करें और ग्यारहवाँ पति हो । हे वधू ! तू अपने अच्छे व्यवहार से श्वशुर की सम्राज्ञी हो, सास की सम्राज्ञी हो, ननदों की सम्राज्ञी हो और देवरों की सम्राज्ञी हो । अर्थात् अपने सुन्दर बर्ताव से और सेवा से सबको अपने वश में कर ले ।
साम्राज्ञी श्वशुरे भव सम्राज्ञी श्वश्रवा भव ।
नान्दरि साम्राज्ञी भव सम्राज्ञी अधि देवृषु ।।