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Mahila Utthan Mandal

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शास्त्रों की बातें १००% सत्य

उपासक चाहे शैव हो या शाक्त, वैष्णव हो या सौर्य, सबसे पहले पूजन गणपतिजी का ही करते है।घर का वास्तुपूजन हो, दुकान का शुभारंभ होता हो या बही की शुरुआत हो, विद्याध्यन का प्रारंभ हो रहा हो, विवाह हो रहा हो या अन्य कोई मांगलिक कार्य हो रहा हो, सर्वप्रथम पूजन गणेशजी का ही किया जाता है।

लक्ष्मीवृद्धि की इच्छा रखनेवाले व्यापारी भी ‘श्री गणेशाय नम: ।’ से ही बहीखाते का आरंभ करते है और उपासक भी ‘श्री गणेशाय नम: ।’ करके ही उपासना शुरू करते है।योगी लोग भी सब मूलाधार केन्द्र का ध्यान करते है तो उसके अधिष्ठाता देव गणपतिजी का आराधन-आवाहन करते है।

उपनिषदों में गणेशजी की पूजा-आराधना सर्वोपरि मानी गयी है।उन्हें कारणब्रम्ह (अधिष्ठान) के रूप में और पूरा जगत कार्यब्रम्ह (अध्यस्त) के रूप में माना गया है।उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के भी अधिष्ठाता देव है गणपतिजी।

गणेश चतुर्थी अर्थात स्थूल, सूक्ष्म और कारण इन तीनों को सत्ता देंनेवाले चैतन्यस्वरूप में विश्रांति पाकर, ‘सोऽहम्’ का नाद जगाकर, ‘आनंदोऽहम्’ का अमृतपान करके संसार-चक्र से मुक्त होने का दिवस।

भगवान सांब सदाशिव और माँ पार्वती, श्रीकृष्ण और राधाजी, श्रीराम और माता सीता, पुरुष और प्रकृति, ईश्वर और उसकी आह्रादिनी शक्ति-इनके रहस्यों को समझने के लिए कुंडलिनी शक्ति के, मूलाधार केन्द्र के अधिष्ठाता देव गणपतिजी माने जाते है।

जिसकी कुंडलिनी शक्ति जाग्रत होती है उसकी नाड़ियाँ शुद्ध होती है, शरीर में छुपे ही रोग दूर होते है, मन के विकार दूर होकर मन निर्मल होता है, बुद्धि सूक्ष्म व कुशाग्र होती है और परब्रम्ह परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जाती है।

अपनी सुषुप्त शक्तियों को जाग्रत करके तुरीयावस्था में पहुँचने का संकेत करनेवाले गणपतिजी गणों के नायक है। गण से क्या तात्पर्य है ? इन्द्रियाँ गण है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ व पाँच कर्मेन्द्रियाँ ये बहि:करण है और मन,बुद्धि,चित्त व अहंकार ये चार अंत:करण है। इन सबका जो स्वामी है वाही गणपति है, ज्ञानस्वरूप है।

ज्ञानस्वरूप, इन्द्रियों के स्वामी उन गणपतिजी से हम प्रार्थना करें कि ‘आपकी शक्ति,आपकी ऋद्धि-सिद्धि हमें संसार में न भटकाये, अपितु तुरीयावस्था में पहुँचाये ऐसी आप कृपा करना, देव !’

गणेश चतुर्थी का प्रसंग

 

एक बार गणपतिजी अपने मौजिले स्वभाव से आ रहे थे । वह दिन था चौथ का । चंद्रमा ने उन्हें देखा । चंद्र को अपने रूप,लावण्य, सौंदर्य का अहंकार था । उसने गणपतिजी ला नजाक उड़ाते हुये कहा : “ क्या रूप बनाया है । लंबा पेट है, हाथी का सिर है …” आदि कह के व्यंग कसा तो गणपतिजी ने देखा की दंड के बिना इसका अहं नहीं जायेगा ।

गणपतिजी बोले: “ जा, तू किसीको मुँह दिखने के लायक नहीं रहेगा ।”

फिर तो चंद्रमा उगे नहीं । देवता चिंतित हुये की पृथ्वी को सींचनेवाला पूरा विभाग गायब! अब औषधियाँ पुष्ट कैसी होगी, जगत का व्यवहार कैसे चलेगा ?”

ब्रम्हाजी ने कहा: “चंद्रमा की उच्छृंखलता के कारण गणपतिजी नाराज हो गये है।”

गणपतिजी प्रसन्न हो इसलिये अर्चना-पूजा की गयी । गणपतिजी जब थोड़े सौम्य हुये तब चंद्रमा मुँह दिखाने के काबिल हुआ । चंद्रमा ने गणपतिजी भगवान की स्त्रोत्र-पाठ द्वारा स्तुति की । तब गणपतिजी ने कहा: “ वर्ष के और दिन तो तुम मुँह दिखाने के काबिल रहोंगे लेकिन भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चौथ के दिन तुमने मजाक किया था तो इस दिन अगर तुमको कोई देखेंगा तो जैसे तुम मेरा मजाक उडाकर मेरे पर कलंक लगा रहे थे, ऐसे ही तुम्हारे दर्शन करनेवाले पर वर्ष भर में कोई भारी कलंक लगेगा ताकि लोगों को पता चले कि

रूप दिसी मगरूर न थीउ, एदो हसन ते नाज न कर ।

रूप और सौंदर्य का अहंकार मत करो । देवगणों का स्वामी, इन्द्रियों का स्वामी आत्मदेव है । तू मेरे आत्मा में रमण करनेवाले पुरुष के दोष देखकर मजाक उडाता है । तू अपने बाहर के सौंदर्य को देखता है तो बाहर का सौंदर्य जिस सच्चे सौंदर्य से आता है  उस आत्म-परमात्म देव मुझको तो तू जानता नहीं है । नारायण-रूप में है और प्राणी-रूप में भी वही है । हे चंद्र! तेरा ही असली स्वरुप वही है, तू बाहर के सौंदर्य का अहंकार मत कर ।”

भगवान श्रीकृष्ण जैसे ने चौथ का चाँद देखा तो उनपर स्वमन्तक मणि चराने का कलंक लगा था । इतना भी नहीं की बलराम ने भी कलंक लगा दिया था, हालोंकी भगवान श्रीकृष्ण ने मणि चुरायी नहीं थी ।

जो लोग बोलते है की ‘वह कथा हम नहि मानते , शास्र-वास्त्र हम नहीं मानते ।’ तो आजमा के देखो भैया ! भाद्रपद शुक्ल चौथ के चंद्रमा के दर्शन करके देख, फिर देख, कथा-सत्संग को नही मानता तो समजा जायेगा, प्रतिष्ठा को धुल में मिला दे ऐसा कलंक लगेगा वर्ष भर में ।

आप सावधान हो जाना । ‘नहीं देखना है, नहीं देखना है, नहीं देखना है ‘ ऐसा भी दिख जाता है ।

यदि भूल से भो चौथ का चंद्रमा दिख जाय तो ‘श्रीमदभागवत’ के १०वे स्कंध, ५६-५७वें अध्याय में दी गयी ‘स्यमंतक मणि की चोरी’ की कथा का आदरपूर्वक श्रवण करना । भाद्रपद शुक्ल तृतीया या पंचमी के चंद्रमा के दर्शन कर लेना, इससे चौथ को दर्शन हो गये हाँ तो उसका ज्यादा खतरा नही होगा ।

अनिच्छा से चन्द्रदर्शन हो गया हो तो…

 

 यदि कोई मनुष्य अनिच्छा से भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की गणेश चतुर्थी के चन्द्रमा को देख ले तो उसे निम्न मंत्र से पवित्र किया हुआ जल पीना चाहिए । ऐसा करने से वह तत्काल शुद्ध हो भूतल पर निष्कलंक बना रहता है । जल को पवित्र करने का मंत्र इस प्रकार है:

सिहः प्रसेनमवधीत सिंहो जाम्बवता हतः । सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः ॥

’सुंदर सलोने कुमार! इस मणि के लिए सिंह ने प्रसेन को मारा है और जाम्बवान ने उस सिंह का संहार किया है, अतः तुम रोओ मत । अब इस स्यमन्तक मणि पर तुम्हारा ही अधिकार है ।’

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