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हरिभजन परायण कर्मठीबाई

राजस्थान के बागर ग्राम में पुरुषोत्तम ब्राह्मण की इकलौती बेटी थी कर्मठी बाई । वह विवाह नहीं करना चाहती थी परंतु ‘लोग क्या कहेंगे’ – इस डर से माँ-बाप ने उसको धकेल दिया संसार के भोग-विलास से भरे जीवन की ओर । कुछ ही दिनों में कर्मठी बाई का शारीरिक पति चल बसा पर असली पति तो किसीका नहीं मरता है । कर्मठी बाई बाहर के जगत के हिसाब से तो विधवा हो गयी लेकिन उसका परम पति परमेश्वर तो मौजूद ही था । विश्वपति जीवित है तो वह विधवा कैसे ? उसके पुण्यों ने उसको ईश्वर के रास्ते प्रेरित किया । गुरुजी से दीक्षा ली तथा वर्षों तक जप, तप, व्रत आदि नियमों का पालन करती रही ।

काल का दुष्चक्र चला और एक-पर-एक कष्टों के पहाड़ मानों टूट पड़े कर्मठी बाई पर । माँ की मृत्यु हो गयी, पिता संसार से अलविदा हो गये, ससुर-सास मर गये । पतिपक्ष व मातृपक्ष दोनों में एक भी नहीं रहा । दुनिया की नजर से वह बिल्कुल अनाथ-सी हो गयी किंतु विश्वनाथ, विश्वेश्वर किसको किस ढंग से उन्नत करना चाहता है यह तो वही जाने ।

जिसको वो प्यार करता है, उसीको आजमाता है । खजाने रहमत के, इसी बहाने लुटाता है ।।

कर्मठी ने संत हरिदास का आश्रय लिया । उनके चरणों में रहकर उसने साधन-भजन किया, उनके बताये मार्ग के अनुसार हरिभक्ति की यात्रा शुरू की । परंतु हरिदास महाराज का भी आश्रय छूट गया । वह वृंदावन के श्रीवन में आयी । वहाँ उसने श्रीहित हरिवंशचन्द्रजी से दीक्षा ली ।

उसकी कर्मनिष्ठा, जप-तप, भक्तियोग ने उसे इतनी तो ऊँचाई दी कि उसका बाहर का नियम-कर्म, पूजा-पाठ छूटता-सा चला गया और वह चुप, शांत…एकाकी विश्रांति पाने में सफल होने लगी । अब उसे बाह्य मंदिर के चक्कर काटने की आवश्यकता नहीं रही । बाह्य पुष्प एकत्रित करना, चंदन घिसना, तिलक लगाना, घंटी बजाना, आरती करना अब उसको रुचता नहीं था । वह बिना आरती के सारी आरतियाँ कर लेती थी, बिना चंदन के विश्वनियंता को चंदन लगा देती थी । शांत, वासनाओं से क्षीण, भक्ति के समुद्र में कर्मठी बाई की आगे की यात्रा तो हुई लेकिन तप्त अग्नि की परीक्षा से भी उसे पसार होना था । विधाता की कुछ ऐसी ही लीला थी ।

स्त्री के प्यारे शत्रु हैं, निकट के शत्रु हैं उसका रूप-लावण्य, यौवन और स्त्रीत्व । कर्मठीबाई का रूप-लावण्य ऐसा कि अप्सरा, परी-सी दिखती थी । सादे-सूदे वस्त्र आदि पहनने के बाद भी विकारी दृष्टि से देखनेवाले उसके यौवन पर लट्टू हो जाते थे ।

मथुरा के राजप्रबंधक हसनबेग ने श्रीवन की सुंदरता के विषय में सुना था । एक दिन श्रीवन की शोभा देखते-देखते यमुनाजी में गोता मारकर निकली हुई रूप-लावण्य, सौन्दर्य की धनी कर्मठी भीगे कपड़ों में उस कामी की नजर में आ गयी । हसनबेग उसके सौन्दर्य पर लट्टू हो गया । उसने जाँच-पड़ताल करवायी कि यह कहाँ रहती है और इसके रिश्ते-नातेदार कौन हैं ?

सारी जानकारी मिलने पर हसनबेग को खुशी हुई कि अकेली अबला को पटाना अथवा उसको अपनी भोग्या बनाना आसान होगा । जाहिर में कुछ करें तो भक्त जगत में हल्ला-गुल्ला हो जायेगा, इसलिए वह मथुरा गया और कुछ कुलटाओं को साथ मिलाकर कर्मठी को फँसाने का कार्यक्रम बनाया व इसके लिए दो कुलटाओं को नियुक्त कर दिया गया । उन कुलटाओं ने कहा : “हम कर्मठी से सीधे मिलेंगी तो वह हमसे बात नहीं करेगी । वह भक्तानी है इसलिए हमें भी भक्तानी के वेश में, उसकी सत्संगी बनकर धीरे-धीरे उसको फंसाने का जाल बिछाना पड़ेगा ।”

हसनबेग उनकी चतुराई पर खुश हुआ और उन्हें धन के साथ इस सारी व्यवस्था में सहयोग करने वाले लोग भी दे दिए ।

उन कुलटाओं द्वारा भक्तानियों का वेश धारण कर कर्मठी बाई के निकट आने का उनका प्रयास सफल हो गया । वे दोनों कर्मठी बाई की सत्संगी बन गयीं । एक दिन वे दोनों देर से आयीं । कर्मठी ने देर से आने का कारण पूछा तो उन्होनें कहा : “हम क्या कहें, हम तो सुबह-सुबह आपके दर्शन और सत्संग को आती ही हैं लेकिन आज हमारे यहाँ एक बड़े संत आ गये थे ।” ऐसा करके उस संत के लिए उन्होंने मनगढ़ंत प्रशंसा के फूल बरसाये । सत्संग और संतदर्शन तो कर्मठी का जीवन ही था ।

अब कर्मठी का मन व्याकुल हो गया । वह बोली : “तुम्हारे एकांतप्रिय, परम विश्रांति पाये हुए, पहुँचे हुए महापुरुष के दर्शन मुझे नहीं करवाओगी ?”

उन कुलटाओं ने कहा : “दर्शन तो हो सकते हैं । वे सुबह-सुबह समाधि से उठते हैं तब आप वहाँ आ जायें, नहीं तो आप प्रभात को यमुना-स्नान करने जाती हैं तब हम आपको लेने आ जायेंगी ।”

सुबह एक कुलटा तो हसनबेग के निवास पर रही, जहाँ वह संतवेश में धोखा करना चाहता था । दूसरी यमुना किनारे आ गयी और पूर्वायोजित मकान में कर्मठी बाई को लिवा ले गयी । फिर इधर-उधर झाँककर बोली :

“मालूम होता है कि वे संत कहीं बाहर सैर करने गये हैं । आप बैठो, मैं अभी उनको बुला लाती हूँ ।” ऐसा कह के उस कुलटा ने अर्गला (सिटकनी) लगाकर बाहर से दरवाज़ा बंद कर दिया और छुपे हुए मिर्जा हसन को इशारा करके खिसक गयी । कर्मठीबाई सोचती है, ‘इसने अर्गला क्यों लगा दी ?’ इतने में मिर्जा हसन अपने को सफल मानकर बड़ा प्रसन्न होता हुआ वहाँ आया ।

नृपस्य चित्तं कृपणस्य वित्तं मनोरथा दुर्जनमानवानाम् । पुरुषभाग्यं च स्त्रियाः चरित्रं देवो न जानाति कुतो मनुष्याः ?

‘राजा का चित्त, कंजूस का धन, दुष्ट व्यक्तियों के मनोरथ, पुरुष का भाग्य और स्त्री का चरित्र तो देवता भी नहीं जानते तो मनुष्यों की तो बात ही क्या है ?’

दुर्जन आदमी के मनोरथ देवता लोग भी नहीं जान सकते तो बेचारी कर्मठी बाई क्या जाने ? किंतु भगवान के भक्तों से दुर्जनों के ये दुष्ट विचार ज्यादा देर छुपे नहीं रह सकते । वह कर्मठी के निकट आया और अपनी बाँहें पसारकर कहता है : “अरे, हुस्न की परी ! रूप-लावण्य की अम्बार !! सौंदर्य की देवी !!! तेरी इतनी खूबसूरती क्या यमुना के ठंडे जल में गलाने के लिए अथवा तपस्या में तप मरने के लिए है ? बड़ी बाँवरी है ! तू तो मेरे दिल की रानी बन, आ मेरी इन भुजाओं में । तेरे को यहाँ तक बुलाने के लिए मेरी ही साजिश थी । जिस संत के लिए तुम आयी हो, वही मैं हूँ ।”

मिर्जा हसन के काम-विकार की माँग से उसके षड्यंत्र का सारा भाँडा कर्मठी के आगे फूट गया । कर्मठी जोरों-से चीखी और भागकर कमरे की दीवार से चिपक गयी ।

‘मैं क्या देख रही हूँ प्रभु !… देव !!…परमेश्वर !!!…रक्षा करो, रक्षा करो ।’ एकाध क्षण इस प्रकार अंतर्मुख होकर उसने अंतर्प्रार्थना की । अंतरात्मा तो सात-सात पातालों में भी हमारा साथ नहीं छोड़ता तो कमरे में उसका साथ कैसे छोड़ेगा वह परमेश्वर !

भीतर-ही-भीतर उसे सत्प्रेरणा मिली : ‘मैं तेरे साथ हूँ । फिक्र न कर, हिम्मत कर ।’ कर्मठी बाई ने सिंहगर्जना करते हुए कहा : “अरे, दुष्ट ! कामांध ! धोखेबाज ! मैं तुझे मजा चखा सकती हूँ ।”

तभी याद आ गया गुरु का वचन ‘किसी का अमंगल नहीं करना है’ तो चुप हो गयी । मिर्जा हसन उसकी गर्जना सुन के चार कदम पीछे चला गया परंतु उसकी कामवासना ने उसे फिर प्रेरित किया । वह बाँहें पसारकर फिर से कर्मठी के निकट आया तो देखता है कि यह तो भूखा शेर बब्बर गरज रहा है ! वह परी कहाँ गयी ? तोबा !… तोबा !!… तोबा !!!…

शेर को देख पीछे भागता हुआ दरवाजे से बाहर निकलना चाहता है लेकिन दरवाजा कुलटा ने बाहर से बंद कर दिया था । अपना ही षड्यंत्र अपने ही गले की फाँसी बना !

“अरे, बचाओ‌‌-बचाओ ।” कुलटाओं को पुकारता है, अपने मंत्रियों को पुकारता है किंतु क्या उस लीलाधारी की लीला है, कोई सगा-सम्बंधी नहीं आया ! वह पुकार कमरे में ही गूँजती है और पुकारते-पुकारते वह पस्त हो जाता है । ‘बचाओ-बचाओ ।’ जोरों की पुकार करके सिर पछाड़ता है, हाथों के थपेड़े मारता है दरवाजे को । क्रोधित शेर को अपनी ओर ताकते-गुर्राते देख हसनबेग बेहोश होकर गिर पड़ा । काफी देर के बाद उन कुलटाओं ने अर्गला खोली तो देखती हैं कि मिर्जा हसन इस हाल में !! बोलीं : “मिर्जा हसनबेग ! क्या हुआ ? वह कहाँ गयी ?” कर्मठी का कोई पता नहीं परंतु हसनबेग की दुर्दशा देखकर मंत्री, उसके चाटुकार तथा कुलटाएँ दंग रह गयीं ।

एक-दो दिन के बाद हसनबेग ने कहा : “छुपे ढंग से पता लगाओ कि कर्मठी कहाँ है ?” उन कुलटाओं ने जाकर देखा तो कर्मठी भगवान के ध्यान में मग्न है, मानों कोई घटना घटी ही नहीं है । कर्मठी ने दोनों से इसके बारे में कोई बात ही नहीं की । कर्मठी के इस अलौकिक चमत्कार से मिर्जा हसनबेग का जीवन पलटा व अशर्फियों का थाल तथा हीरे-जवाहरात लेकर कर्मठी के चरणों में जा गिरा और बोला : “मुझे माफ कर दो ।”

मगर कर्मठी देवी के साथ मानों कोई घटना ही नहीं घटी है । वे लोग कोई माया की कर्मठी को ले गये होंगे । – ऐसा कर्मठी के व्यवहार से वह परमेश्वर उन्हें महसूस करा रहा था । कर्मठी देवी ने अशर्फी आदि लेने से इन्कार कर दिया । हसन के बहुत गिड़गिड़ाने पर कर्मठी ने कहा : “जाओ, साधु-संतों और भक्तों की सेवा में लगा दो ।” मिर्जा हसन ने ऐसा ही किया ।

धन्य है कर्मठी देवी ! जिसने गुरु के कृपा-प्रसाद से श्री कृष्ण के स्वरूप का ज्ञान पाया । कर्षति आकर्षति इति कृष्णः । जो कर्षित कर दे, आकर्षित कर दे, आनंदित कर दे । जो सच्चिदानन्द है, जिसके सत् अंश से सृष्टि है, चित् अंश से जीवों में चेतना है और आनंद अंश से सबके हृदय में सुखाभास होता है, जो सृष्टि की उत्पत्ति-स्थिति एवं प्रलय का कारण है और जिसको प्रणाम करनेमात्र से तीनों तापों का शमन होता है, वह सर्वेश्वर, परमेश्वर, सर्वव्यापी ईश्वर है व अभी-भी प्राणीमात्र का आत्मा बना बैठा है ।

सच्चिदानंदरुपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे । तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः ।।

अपनी सत्ता-स्फूर्ति से तुम्हारे-हमारे हृदय की धड़कने चलाता है । हृदय की धड़कनें बंद होने के बाद भी तुम्हारा और हमारा जो साहेब साथ नहीं छोड़ता, उस साहेब के लिए गुरू अर्जुनदेव ने कहा है :

सो ठाकुरु सद सदा हजूरे । ता कउ अंधा जानत दूरे ।।

‘वह साहेब सदा हुजूर है, अंधा उसको दूर समझता है ।’ वे बड़भागी हैं जो उस साहेब का जप करते हैं, ध्यान करते हैं, चिंतन करते हैं, उसमें आनंदित होते हैं, शांत होते हैं और उसीके लिए अपने को भगवान की भक्ति में लगा देते हैं । उन बच्चे-बच्चियों के माँ-बाप धनभागी हैं, जिनको यौवन में काम नहीं राम चाहिए, भोग नहीं भगवान चाहिए । उनके माता-पिताओं को टोकनेवालों की बुद्धि पर भगवान विशेष कृपा करें । भगवान उन्हें सद्बुद्धि दें । ‘अरे, अभी तक तुम्हारे लड़के ने शादी नहीं की, इतना बड़ा हो गया !… अभी तक तुम्हारी कन्या ने शादी नहीं की !’ उसने तो शादी कर ली मीरा की नाईं अपने गिरधर गोपाल से, अपने परमेश्वर से । कर्मठी बाई के लिए लोग उसके माँ-बाप को बहुत ताने मारते थे ।

माँ-बाप ने कर्मठी बाई की शादी तो करा दी पर वह पुरुषार्थ करके अपने आत्मा-परमात्मा को जानकर सदा के लिए शाद-आबाद हो गयी । चौरासी लाख योनियों के फेरों से वह देवी छूट गयी । कवियों ने कर्मठी बाई के लिए क्या सुंदर गाया है, संतों ने उसके लिए वृंदावन में क्या-क्या आलापा है :

धन्य पिता धनि मात धन्य मति अबला जन की । तजी विषै संसार बिहार निहारन मन की ।।

हसनबेग इक जमन देखि दुष्टता बिचारी । करि नाहर कौ रूप त्रास दै नाथ उबारी ।।

धन्य हैं कर्मठी के माता-पिता और धन्य है कर्मठी की दृढ़ भगवद्भक्ति !

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