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ऋषि ऋण से मुक्त एवं ब्रह्मपरायण होने का अवसरः ऋषि पंचमी

भारत ऋषि मुनियों का देश है। इस देश में ऋषियों की जीवन-प्रणाली का और ऋषियों के ज्ञान का अभी भी इतना प्रभाव है कि उनके ज्ञान के अऩुसार जीवन जीने वाले लोग शुद्ध, सात्त्विक, पवित्र व्यवहार में भी सफल हो जाते हैं और परमार्थ में भी पूर्ण हो जाते हैं।

ऋषि तो ऐसे कई हो गये, जिन्होंने अपना जीवन केवल ʹबहुजन हिताय-बहुजनसुखायʹ बिता दिया। हम उन ऋषियों का आदर करते हैं, पूजन करते हैं। उनमें से भी वशिष्ठ, विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, अत्रि, गौतम और कश्यप आदि ऋषियों को तो सप्तर्षि के रूप में नक्षत्रों के प्रकाशपुंज में निहारते हैं ताकि उऩकी चिरस्थायी स्मृति बनी रहे।

 

 

ऋषियों को ʹमंत्रदृष्टाʹ भी कहते हैं। ऋषि पंचमी के दिन इन मंत्रदृष्टा ऋषियों का पूजन किया जाता है। इस दिन माताएँ विशेष रूप से व्रत रखती हैं।

ऋषि पंचमी के दिन माताएँ आमतौर पर व्रत रखती हैं। जिस किसी महिला ने मासिक धर्म के दिनों में शास्त्र-नियमों का पालन नहीं किया हो या अनजाने में ऋषि का दर्शन कर लिया हो या इन दिनों  में उनके आगे चली गयी हो तो उस गलती के कारण जो दोष लगता है, उस दोष का निवारण करने हेतु वह व्रत रखा जाता है।

ऋषि मुनियों को आर्षद्रष्टा कहते हैं। उन्होंने कितना अध्ययन करने के बाद सब बातें बतायी हैं ! ऐसे ही नहीं कह दिया है।

वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह बात सिद्ध हो चुकी है कि मासिक स्राव के दिनों में स्त्री के जो परमाणु (वायब्रेशन) होते हैं, वे अशुद्ध होते हैं। उसके मन-प्राण विशेषकर नीचे के केन्द्रों में होते हैं। इसलिए उन दिनों के लिए शास्त्रों में जो व्यवहार्य नियम बताये गये हैं, उनका पालन करने से हमारी उन्नति होती है।

पूज्य बापूजी बताते हैं, मेरे गुरुदेव (साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज) स्त्री के उत्थान में तो विश्वास रखते थे लेकिन आजकल के जैसे उत्थान में नहीं। स्त्री का वास्तविक उत्थान क्या है, यह तो ऋषियों की दृष्टि से जो देखें वे ही समझ सकते हैं। मदालसा रानी, जीजाबाई, चुड़ाला रानी, दीर्घतपा ऋषि की पत्नी जैसी आदर्श चरित्रवाली स्त्रियाँ हो गयीं। गार्गी और सुलभा जैसी स्त्रियाँ भरी सभा में शास्त्रार्थ करती थीं। कई स्त्रियों ने भी ऋषिपद पाया है, उपनिषदों में उऩका वर्णन आता है।

जिन घरों में शास्त्रोक्त नियमों का पालन होता है, लोग कुछ संयम से जीते हैं, उन घरों में तेजस्वी संतानें पैदा होती हैं।

व्रत-विधि

 

यह दिन त्यौहार का नहीं, व्रत का है। हो सके तो इस दिन अपामार्ग (लटजीरा) की दातुन करें। शरीर पर देशी गाय के गोबर का लेप करके नदी में 108 गोते  मारने का विधान भी है। ऐसा न कर सको तो घर में ही 108 बार  हरि का नाम लेकर स्नान कर लो। फिर मिट्टी या ताँबे के कलश की स्थापना करके उसके पास अष्टदल कमल बनाकर उन दलों में सप्तऋषियों व वसिष्ठप्तनी अरूंधती का आवाहन कर विधिपूर्वक उनका पूजन-अर्चन करें। फिर कश्यप, अत्रि, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि व वसिष्ठ इन सप्तऋषियों को प्रणाम करके प्रार्थना करें कि ‘हे सप्तऋषियो ! हमने कायिक, वाचिक व मानसिक जो भी भूलें हो गयी हैं, उन्हें क्षमा करना। आज के बाद हमारा जीवन ईश्वर के मार्ग पर शीघ्रता से आगे बढ़े, ऐसी कृपा करना।’ फिर अपने गुरु का पूजन करें। तुम्हारी अहंता, ममता ऋषि चरणों में अर्पित हो जाय, यही इस व्रत का ध्येय है।

इस दिन हल से जुते हुए खेत का अन्न नहीं खाना चाहिए, खैर अब तो ट्रैक्टर हैं, मिर्च-मसाले, नमक घी, तेल, गुड़ वगैरह का सेवन भी त्याज्य है। दिन में केवल एक बार भोजन करें। इस दिन लाल वस्त्र दान करने का विधान है।

ऋषि पंचमी – व्रत कथा 

 

ऋषि पंचमी के व्रत से वशिष्ठ, विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, अत्रि, गौतम और कश्यप इन सप्त ऋषियों के साथ अरुंधति का भी पूजन किया जाता है। नारी-शक्ति को समझना चाहिए कि जैसे पुरुष अपना प्रयत्न, अभ्यास करके ब्रह्मर्षि, देवर्षि, राजर्षि हो सकता है ऐसे हम भी अभ्यास करें तो ऐसी ऊंचाइयों को छू सकती है।

 कथा आती है कि उत्तंक ब्राह्मण और उनकी पत्नी सुशीला घर संसार चलाते थे। उनको एक पुत्र व पुत्री हुई । पुत्री बड़ी हुई उसका विवाह हो गया । पुत्र गुरुकुल से पढ़कर आया। इतने में दुर्भाग्य से पति का स्वर्गवास हो गया । कुटुम्ब में उसके पालन की कोई व्यवस्था नहीं थी तो विधवा पुत्री मायके चली आई।

संसार के दुख और कल्मष को मिटाने का उपाय है कि एकांत में अपनी वृति भगवान में लगाकर संसार से पार होने का पुरुषार्थ करना ये बात वह ब्राह्मण जानते थे। तो ब्राह्मण- ब्राह्मणी ने निर्णय लिया कि पुत्र घर-संसार को संभाले और हम तीनों गंगा-किनारे सात्विक वातावरण में छोटा-मोटा आश्रम बनाकर भगवद-भजन करें और दूसरों को कराने का दैवी कार्य हाथ में लें ताकि अपना जीवन धन्य हो जाये। पुत्र सहमत हो गया। ब्राह्मण, ब्राह्मणी और उनकी बेटी गंगा-किनारे आश्रम बनाकर ध्यान-भजन करने लगे। उनके पास आस-पास के कुछ ब्रह्मचारी बच्चे पढ़ने आते थे। गुरुपुत्री भी आश्रम की खूब सेवा करती थी। एक दोपहर को वो सेवा करते-करते थक गई तो वृक्ष के नीचे जो चबूतरा था वहाँ जरा सा बैठी तो झट-से नींद आ गई। सोकर उठी तो उसके शरीर में फोड़े हो गये थे और उनमें कीड़े खदबदाने लगे थे।

सुशीला ने पुत्री की स्थिति देखी तो वह मूर्छित होकर गिर पड़ी। विद्यार्थी बच्चों ने पानी छिड़का तो उसकी मूर्छा टूटी, सावधान हुई और पति के पास भागी। पति-पत्नी दोनों ने पुत्री को अपने आश्रम की एक छोटी-सी कुटिया में ले गये तथा उसकी सेवा शुश्रूषा करने लगे।

ब्राह्मण ने सोचा कि ‘पुत्री ने ऐसा तो कोई पाप किया नहीं कि इसके शरीर में कीड़े पड जाये !’ एकाएक ऐसी विपति आ गयी। इसके पीछे कोई दैवी कोप या इसके प्रारब्ध का फल होगा।’

ब्राह्मण अभ्यासयोग से युक्त हुए थे। अपने मन-इन्द्रियों को वश करके अन्तरतम चेतना में प्रवेश करने की उनमें शक्ति आ गयी थी। अंतर्मुख होकर बच्ची का पूर्वजन्म देखा तो पिछले ७वें जन्म में वह उच्छृंखल स्वभाव की थी। झूठ-कपट करती और खान-पान में मनमानी करती थी। साथ ही वह मासिक धर्म में भी खाद्य पदार्थों को छूती और परोसती थी स्पर्शास्पर्श से नहीं बचती थी।

मासिक धर्म में महिलाएं यदि खाद्य- पदार्थ बनाये और परोसे तो जो लोग वो खाद्य-पदार्थ खाते है वे तेजोहीन हो जाते है, उनकी बुद्धि का तेज, याददाश्त, मानुषी तेज, प्रभाव जो होना चाहिए वह नहीं रहता। तो उसको दूसरों को प्रभावशून्य करने का पाप लगा था। लोग उसको बोलते थे कि ‘मासिक धर्म में हो तो अलग से रहना चाहिए और कभी गलती से भी किसी ऋषि का दर्शन हो गया हो या किसी भजनानंदी के नजदीक चली गयी हो अथवा दूर से उनकी निगाह पड़ गयी हो तो दोष लगता है।’ उस जन्म में उसने यह बात नहीं मानी। उल्टे उस दोष-निवृति के लिए जो महिलाएं ऋषि-पंचमी का व्रत करती थी उनका वह मजाक उड़ाती और खुद ऋषि-पंचमी का अनादर करती थी।

 कर्म करना मनुष्य के वश में है और फल कब और कैसे मिलेगा यह विधाता के हाथ में है। आज तुम कर्म करो तो उसका फल अभी मिले, एक साल बाद मिले, १० साल या १० जन्म अथवा १० हजार जन्मों के बाद मिले, इसमें आप कुछ नहीं कर सकते हैं, यह नियति के हाथ में है। जब तक मनुष्य कर्ता होकर कर्म करता है, जब तक आत्मज्ञान का प्रसाद नहीं मिला ‘अकर्तृत्वं अभोक्तृत्वम्…’ की अवस्था में नहीं गया तब तक कर्म का फल भोगना पड़ता है।

 ब्राह्मण ने पुत्री को थोड़ी शिक्षा-दीक्षा दी और ऋषि-पंचमी का व्रत कराया, जिससे उसके दोष का नाश हुआ और वह स्वस्थ हो गयी।

ब्रह्मज्ञानरूपी फल की प्राप्ति

 

हमारी क्रियाओं में जब ब्रह्मसत्ता आती है, हमारे रजोगुणी कार्य में ब्रह्मचिंतन आता है, तब हमारा व्यवहार भी तेजस्वी, देदीप्यमान हो उठता है। खान-पान-स्नानादि तो हररोज करते हैं पर व्रत के निमित्त उन ब्रह्मर्षियों को याद करके सब क्रिया करें तो हमारी लौकिक चेष्टाओं में भी उन ब्रह्मर्षियों का ज्ञान छलकने लगेगा। उनके अनुभव को अपना अनुभव बनाने की ओर कदम आगे रखें तो ब्रह्मज्ञानरूपी अति अदभुत फल की प्राप्ति में सहायता होती है।

ऋषि पंचमी का यह व्रत हमें ऋषिऋण से मुक्त होने के अवसर की याद दिलाता है। लौकिक दृष्टि से तो यह अपराध के लिए क्षमा माँगने का और कृतज्ञता व्यक्त करने का अवसर है पर सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो यह अपने जीवन को ब्रह्मपरायण बनाने का संदेश देता है।

उन ऋषि मुनियों का वास्तविक पूजन है-उनकी आज्ञा शिरोधार्य करना। वे तो चाहते हैं-  देवो भूत्वा देवं यजेत्।

देवता होकर देवता की पूजा करो। ऋषि असंग, दृष्टा, साक्षी स्वभाव में स्थित होते हैं। वे जगत के सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान, शुभ-अशुभ में अपने दृष्टाभाव से विचलित नहीं होते। ऐसे दृष्टाभाव में स्थित होने का प्रयत्न करना और अभ्यास करते-करते अपने दृष्टाभाव में स्थित हो जाना ही उनका पूजन करना है। उन्होंने खून पसीना एक करके जगत को आसक्ति से छुड़ाने की कोशिश की है। हमारे सामाजिक व्यवहार में, त्यौहारों में, रीत-रिवाजों में कुछ-न-कुछ ऐसे संस्कार डाल दिये कि अनंत काल से चली आ रही मान्यताओं के परदे हटें और सृष्टि को ज्यों-का-त्यों देखते हुए सृष्टिकर्ता परमात्मा को पाया जा सके। उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए ऋषियों का पूजन करना चाहिए, ऋषिऋण से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए।

जीव अपने सहज सच्चिदानंदस्वरूप को पा ले। फिर न सुख सच्चा न दुःख सच्चा, न जन्म सच्चा न मृत्यु – सब सपना, चैतन्य, साक्षी, सच्चिदानंद अपना। ऋषियों ने हमारे सामाजिक व्यवहार में, त्यौहारों में, रीति रिवाजों में कुछ न कुछ ऐसे संस्कार डाल दिये कि अनंत काल से चली आ रही मान्यताओं के पर्दे हटें और सृष्टि को ज्यों का त्यों देखते हुए सृष्टिकर्ता परमात्मा को पाया जा सके। ऋषियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उनका पूजन करना चाहिए, ऋषिगण से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए। योगवासिष्ठ, गीता, भागवत, ब्रह्मज्ञानी गुरुओं का सत्संग – सब ऋषि वाणी हैं। ब्रह्मज्ञानी संतों का सत्संग पाना एवं दूसरों तक पहुँचाना ऋषिऋण से मुक्त होने का सुंदर व सर्वहितकारी साधन है। धनभागी हैं, ‘ऋषि प्रसाद’ पढ़ने व ‘ऋषि दर्शन’ देखने वाले ! धनभागी हैं, इस दैवी कार्य में सहभागी होने की प्रेरणा देने वाले एवं समाज तक सत्संग-संदेश पहुँचाने वाले !

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