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सदगुरु के प्रति कृतज्ञता प्रकटाने का पर्वः गुरुपूर्णिमा

 

व्यासपूर्णिमा का इतिहास एवं उद्देश्य

         

महाभारत, ब्रह्मसूत्र, श्रीमद्भागवत आदि के रचयिता महापुरुष वेदव्यासजी के ज्ञान का मनुष्यमात्र लाभ ले, इसलिए व्यासपूनम, गुरुपूनम को, आषाढ़ी पूनम को देवताओं ने वरदानों से सुसज्जित कर दिया कि जो सत्शिष्य सद्गुरु के द्वार जायेगा, सद्गुरु के उपदेश पर, सद्गुरु के संकेतों पर चलेगा, सद्गुरु का सानिध्य पायेगा उसे बारह महीने के व्रत-उपवास करने का फल इस पूनम के व्रत-उपवास मात्र से हो जायेगा ।

             वस्तु जितनी सूक्ष्म होती है उतनी ही वह विभु (बड़ी, व्यापक) होती है और जितनी विभु होती है उतनी वह स्वतंत्र होती है । आपके शरीर से आपका मन ज्यादा विभु है । मन से भी ज्यादा आपकी मति विभु है और मति से भी ज्यादा आपका जीव विभु है । जीव से भी ज्यादा आपका आत्मा-परमात्मा विभु है । ऐसे विभु के ज्ञान को देनेवाले जो महापुरुष हुए वे ‘व्यास’ कहे गये और उन महापुरुष का ज्ञान समाज को मिलता रहे, – ऐसे ज्ञान की, सत्संग की जो सुंदर व्यवस्था उन महापुरुषों ने की, उसका लाभ समाज को मिलता रहे इसलिए व्यासपूर्णिमा मनायी जाती है ।

             व्यासपूर्णिमा भारत में तो अनादि काल से मनायी जाती है तथा धरती के कई देशों – जैसे एटलांटिक सभ्यता, दक्षिण अमेरिका, यूरोप, मिस्र, मेसोपोटामिया, तिब्बत, चीन और जापान में भी मनायी तो जाती थी परंतु वहाँ परब्रह्म परमात्मा का अनुभव किये हुए आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार किये हुए व्यासजी जैसे महापुरुष नहीं हो पाए और व्यासजी के आदेशों को, व्यासजी के उद्देश्य को, व्यासजी के मार्गदर्शन को ठीक से समझनेवाले, समझकर उसके अनुसार चलनेवाला समाज भी नहीं हो पाया । केवल भारत में ही ऐसे महापुरुषों की परंपरा बनी रही और महापुरुषों से लाभ लेकर अपनी सात पीढियां तारनेवाले सत्पुरुष, सत्पात्र भी इस देश में बने रहें हैं, इसलिए आज भी भारत में व्यासपूर्णिमा का महोत्सव सुरक्षित है। एक-दो जगह नहीं, दस-पांच जगह नहीं देश भर में जहाँ-जहाँ अच्छे, उच्चकोटि के, उच्च आदर्शो के धनी, उच्च अनुभव और उच्च प्रकाश के धनी गुरु लोग हैं वहाँ यह व्यासपूर्णिमा मनायी जाती है ।

जब तक मानव-जाति को सच्चे सुख की आवश्यकता है और सच्चे सुख का अनुभव करानेवाले गुरु जब तक धरती पर है, तब तक गुरुओं का आदर एवं पूजन होता रहेगा । गुरु का पूजन गुरु का आदर है, सत्य का, ज्ञान का आदर है; अपने जीवन का आदर है । अपनी मनुष्यता का आदर ही सद्गुरु का आदर है। जो अपने मनुष्य-जीवन का आदर नहीं जानता वह सद्गुरु का आदर क्या जाने ? जो अपने मनुष्य-जीवन का महत्व नहीं जानता, वह अपने सद्गुरु का महत्व क्या जाने ? जो अपने मनुष्य-जीवन की महानता नहीं जानता, वह सद्गुरु की महानता क्या जाने ? सद्गुरु का ज्ञान लहराता सागर है और शिष्यरूपी चंद्र को देखकर उछलता है । निर्मल बुद्धि हो जाता है शिष्य ! निर्मल बुद्धि में कोमलता आती है । वह निर्मल बुद्धि शुद्ध हृदय में ज्ञान का जगमगाता प्रकाश, आनंद, नित्य नवीन रस प्रकट करने में सक्षम होती है।

आषाढ़ी पूर्णिमा को ʹव्यास पूर्णिमाʹ कहा जाता है । वेदव्यासजी ने जीवों के उद्धार हेतु, छोटे से छोटे व्यक्ति का भी उत्थान कैसे हो, महान से महान विद्वान को भी लाभ कैसे हो – इसके लिए वेद का विस्तार किया । इस व्यासपूर्णिमा को ʹगुरुपूर्णिमाʹ भी कहा जाता है । ʹगुʹ माने अंधकार, ʹरूʹ माने प्रकाश । अविद्या, अंधकार में जन्मों से भटकता हुआ, माताओं के गर्भों में यात्रा करता हुआ वह जीव आत्मप्रकाश की तरफ चले इसलिए इसको ऊपर उठाने के लिए गुरुओं की जरूरत पड़ती है । अंधकार हटाकर प्रकाश की ज्योति जगमगाने वाले जो श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आत्मरामी महापुरुष अपने-आप में तृप्त हुए हैं, समाज व्यासपूर्णिमा के दिन ऐसे महापुरुषों की पूजा आदर सत्कार करता है । उनके गुण अपने में लाने का संकल्प करता है ।

बिखरी चेतना, बिखरी वृत्तियों को सुव्यवस्थित करके कथा वार्ताओं द्वारा जो सुव्यवस्था करें उनको ʹव्यासʹ कहते हैं । व्यासपीठ पर विराजने वाले को आज भी भगवान व्यास की पदवी प्रदान करते हैं । हे मेरे तारणहार गुरुदेव ! आप मेरे व्यास हो । जिनमें जिज्ञासुओं को तत्त्वज्ञान का उपदेश देने का सामर्थ्य है वे मेरे गुरु हैं । हे सच्चिदानंदस्वरूप का दान देने वाले दाता ! आप व्यास भी हैं और मेरे गुरु भी हैं ।

त्रिगुणमयी माया में रमते जीव को गुणातीत करने वाले हे मेरे गुरुदेव ! आप ही मेरे व्यास, मेरे गुरु और मेरे सदगुरु हैं । आपको हजार हजार प्रणाम हों ! धन्य हैं भगवान वेदव्यासजी, जिन्होंने जिज्ञासुओं के लिए वेद के विभाग करके कर्म, उपासना और ज्ञान के साधकों का मार्गदर्शन किया । उन व्यास के सम्मान में मनायी जाती है व्यासपूर्णिमा । ऐसी व्यासपूर्णिमा को भी प्रणाम हो जो साधकों को प्रेरणा और पुष्टि देती है ।

गुरु माने भारी, बड़ा, ऊँचा । गुरु शिखर ! तिनका थोड़े से हवा के झोंके से हिलता है, पत्ते भी हिलते हैं लेकिन पहाड़ नहीं डिगता । वैसे ही संसार की तू-तू, मैं-मैं, निंदा-स्तुति, सुख-दुःख, कूड़ कपट, छैल छबीली अफवाहों में जिनका मन नहीं डिगता, ऐसे सदगुरुओं का सान्निध्य देने वाली है गुरूपूर्णिमा । ऐसे सदगुरु का हम कैसा पूजन करें ? समझ में नहीं आता फिर भी पूजन किये बिना रहा नहीं जाता ।

 

कैसे करें मानस पूजा ?

 

गुरुपूनम की सुबह उठें । नहा-धोकर थोड़ा-बहुत धूप, प्राणायाम आदि करके श्रीगुरुगीता का पाठ कर लें । फिर इस प्रकार मानसिक पूजा करें-

ʹमेरे गुरुदेव ! मन ही मन, मानसिक रूप से मैं आपको सप्ततीर्थों के जल से स्नान कर रहा हूँ । मेरे नाथ ! स्वच्छ वस्त्रों से आपका चिन्मय वपु (चिन्मय शरीर) पोंछ रहा हूँ । शुद्ध वस्त्र पहनाकर मैं आपको मन से ही तिलक करता हूँ, स्वीकार कीजिये । मोगरा और गुलाब के पुष्पों की दो मालाएँ आपके वक्षस्थल में सुशोभित करता हूँ । आपने तो हृदयकमल विकसित करके उसकी सुवास हमारे हृदय तक पहुँचायी है लेकिन हम यह पुष्पों की सुवास आपके पावन तन तक पहुँचाते हैं, वह भी मन से, इसे स्वीकार कीजिये । साष्टांग दंडवत् प्रणाम करके हमारा अहं आपके श्रीचरणों में धरते हैं ।

हे मेरे गुरुदेव ! आज से मेरी देह, मेरा मन, मेरा जीवन मैं आपके दैवी कार्य के निमित्त पूरा नहीं तो हर रोज 2 घंटा, 5 घंटा अर्पण करता हूँ, आप स्वीकार करना । भक्ति, निष्ठा और अपनी अऩुभूति का दान देने वाले देव ! बिना माँगे कोहिनूर का भी कोहिनूर आत्मप्रकाश देने वाले हे मेरे परम हितैषी ! आपकी जय-जयकार हो ।ʹ

इस प्रकार पूजन तब तक बार-बार करते रहें जब तक आपका पूजन गुरु तक, परमात्मा तक नहीं पहुँचे । और पूजन पहुँचने का एहसास होगा, अष्टसात्त्विक भावों (स्तम्भ-खम्भे जैसा खड़ा होना, स्वेद-पसीना छूटना, रोमांच, स्वरभंग, कम्प, वैवर्ण्य-वर्ण बदलना, अश्रु-प्रलय-तल्लीन होना) में से कोई-न-कोई भाव भगवत्कृपा, गुरुकृपा से आपके हृदय में प्रकट होगा । इस प्रकार गुरुपूर्णिमा का फायदा लेने की मैं आपको सलाह देता हूँ । इसका आपको विशेष लाभ होगा, अनंत गुना लाभ होगा । शास्त्रों में वर्णन आता है कि षोडशोपचार की पूजा से भी मानस पूजा अधिक फलदायी है ।

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