वाणी के गुण
वाणी का हमारे जीवन में किस ढंग से प्रयोग हो, किस प्रकार की वाणी का प्रयोग न हो- यह जान लेना और तदनुसार उसका जीवन में प्रयोग करना आवश्यक है । सत्यता, दृढ़ता, मधुरता, संक्षिप्तता, हितकारिता, नम्रता और शिष्टता – यह सात वाणी के गुण हैं । कठोरता, परनिंदा, असत्यता, अश्लीलता, निरर्थकता और अहंकारिता ये छः वाणी के दोष हैं ।
वाणी के गुण :
(1) सत्यता :
संत कबीरजी ने कहा है :
साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । जाके हिरदय साँच है, ताके हिरदय आप ।।
साँचे श्राप न लागै, साँचे काल न खाय । साँचहि साँचा जो चलै, ताको काह न साय ।।
जो सत्य बोलता है, सत्य आचरण करता है उसे शाप नहीं लगता अर्थात् उसका अहित चाहनेवाला उसकी सत्यता को नष्ट नहीं कर सकता । सत्य के राही को काल (मृत्यु), कल्पना एवं समय-चक्र कोई हानि नहीं पहुँचा सकता ।
अधिकतर लोगों की यह धारणा है कि ‘आजकल सत्य बोलने वाले की कोई कीमत नहीं होती । हर जगह उसे परेशानी-ही-परेशानी मिलती है । बिना झूठ बोले व्यापार और जीवन चल ही नहीं सकता । ‘किंतु यदि सच्चा व्यक्ति अपने आचार, विचार व उच्चार (वाणी) में दृढ़ होता है तो अंत में सभी लोग उसका सम्मान करते हैं, उसकी पदोन्नति होती है, वह एक अच्छा आदर्श स्थापित करता है । ऐसा व्यक्ति सुखी होता है, संतुष्ट होता है । सदैव सत्य का प्रचार करें । सत्य की प्रस्थापना करें । सत्य कहने का अभ्यास करें । किसी भी विरोध और धमकी से घबड़ाये नहीं । हमारे ऋषि कहते हैं: सत्यं वद, धर्मं चर । अर्थात् सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो । साँच को आँच कहाँ ? कहावत जग प्रसिद्ध है ।
बेईमान सेठ भी ईमानदार मुनीम चाहता है । बेईमान पति भी ईमानदार पत्नी चाहता है । ईमानदार तो ईमानदार की कद्र करते ही हैं लेकिन झूठे भी अपने साथ सच्चाई का सलूक चाहते हैं । क्या आप सच्चा नौकर नहीं चाहते ? आपने दिल पर हाथ रखके बताओ कि आप सच्चे को चाहते हो कि झूठे को ? भगवान भी सच्चे के ह्रदय में प्रगट होते हैं ।
(२) दृढ़ता :
अपने वचनों, प्रतिज्ञाओं एवं वादों के प्रति दृढ़ता होना वाणी की महान विशेषता है । जिसमें यह गुण है वह बात का धनी कहा जाता है, उसकी वाणी मूल्यवान मानी जाती है, लोक में उसकी प्रतिष्ठा होती है । जो अपने प्रतिज्ञा-पालन में दृढ़ नहीं होते वे लक्ष्यच्युत होकर दुःखी होते हैं । उन्हें लोग हेय दृष्टि से देखते हैं और उन पर कोई विश्वास नहीं करता । वचन देने में जल्दबाजी न करें और वचन पूरा करने में भूल न करें । ‘फिर मिलेंगे’ सोचकर बोलो, नहीं तो ‘हरि इच्छा’ बोलो । ऐसा न बोलो जिससे आप झूठे साबित हों । वचन-पालन में दृढ़ न रहनेवाले लोग कोई नेतृत्व नहीं कर सकते तथा अपने अभीष्ट लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सकते । ऐतिहासिक एवं प्रागैतिहासिक काल में वर्णित, जहाँ तक हमें जानकारी मिलती है, सभी महापुरुष दृढ़प्रतिज्ञ रहे हैं ।
विषम परिस्थितियों में भी अपने वचन में दृढ़ता मनुष्य को सुकीर्ति प्रदान करती है । यदि आप चाहते हैं कि लोग आप पर विश्वास करें, आपका परिवार या संघ एकता, समता और प्रेम के सूत्र में बँधे, यदि आप चाहते हैं आपका व्यवहार सुंदर हो, यदि आप चाहते हैं आपका मन प्रफुल्लित रहे, यदि आप चाहते हैं कि आपकी वाणी का सर्वत्र आदर हो तो वादे के सच्चे रहें, अपने वचन पर अटल रहें । किसी प्रलोभन या दबाव के सामने झुके नहीं, आपकी सत्यनिष्ठा व वचननिष्ठा ही अमोघ अस्त्र का काम करेगी ।
( ३ ) मधुरता :
वाणी में मधुरता की अतीव आवश्यकता है । मधुर वाणी से ही हम दूसरों से मधुर व्यवहार स्थापित कर सकते हैं अथवा किसीका सुधार कर सकते हैं ।
ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय ।।
तुलसी मीठे वचन ते, सुख उपजत चहुँ ओर ।
वशीकरन यह मंत्र है, तज दे वचन कठोर ।।
आप कितने ही पुरुषार्थी और अनेक योग्यताओं, उपाधियों से विभूषित क्यों न हों, किंतु यदि आपकी वाणी में मधुरता नहीं है तो भले ही लोग स्वार्थ का भयावह आपका आदर करें, आज्ञा मानें किंतु उनमें हृदय से आपके प्रति प्रेम, सद्भावना, श्रद्धा और स्नेह नहीं उपज सकते, आप लोकप्रिय नहीं हो सकते । इससे विपरीत अनेक प्रकार की भौतिक अयोग्यताएँ होने पर भी मधुरवक्ता या मृदुभाषी सर्वत्र लोकप्रिय होता है । तभी तो लोग किसी प्रियभाषी की वाणी सुनकर कहते हैं कि अमुक व्यक्ति ज़ब बोलता है तब उसके मुख से मानो फूल झड़ते हैं । वाणी की मृदुता, मधुरता सर्वप्रिय होती है, अतः मधुरभाषी बनें । आपकी मधुर वाणी सत्य, निष्कपटता, निस्वार्थता के भावों से ओतप्रोत हो तो सोने में सुहागा है, ऐसी वाणी ही अनमोल धन है ।
कागा काको धन हरै, कोयल काको देत । मीठा शब्द सुनाय के, जग अपनो करि लेत ।।
( ४ ) संक्षिप्तता :
आप जो कुछ कहना चाहते हैं उसे संक्षेप में कहें, इससे सुननेवाला ऊबेगा नहीं । अधिक विस्तार से बोलने में समय अधिक लगता है और कभी-कभी मूल बात छूट जाती है । जो अपने कथन को जितने ही कम समय में और कुशलता के साथ समझा पाने में समर्थ होता है वह उतना ही कुशल वक्ता माना जाता है । ‘ लेकिन….. इसने…. उसका…. फलाना…. ‘ – व्यर्थ का विस्तार मूर्खता की पहचान देता है और दिमाग की कमजोरी बढ़ाता है ।
आज की आपाधापी की दुनिया में बहुत लोग मशीन की तरह यांत्रिक जीवन जी रहे हैं । किसीको प्रायः इतनी फुरसत नहीं है कि वह अपनी बात अधिक देर तक सुन सके । अधिक बोलने से ओज, वीर्य, और मज्जा ख़र्च होता है । अतः संक्षिप्त और सारगर्भित बोलना चाहिए । अति सर्वत्र वर्जयेत् । अति सर्वत्र दुःखदायी है । कम बोलनेवाला विवाद, कलह, निंदा आदि दोषों से बच जाता है । अतः मितभाषिता सर्वत्र सुखदायी है ।
कौन क्या बोलता है, कितना बोलता है, यह उसकी वाक्य-क्षमता और अनुभव पर निर्भर करता है । कोई अधिक देर तक बोलकर भी जन-मन पर प्रभाव नहीं डाल पाता और कोई कम बोलकर भी जन-मन को आकर्षित कर लेता है । यदि हमारा कथन आचरणयुक्त होगा तो अवश्य ही वह लाभकारी होगा ।
( ५ ) हितकारीता :
वाणी सत्य, प्रिय, मित के साथ-साथ हितकारी भी हो । धोखाधड़ी वाले भी मीठी बात करते हैं लेकिन उसकी कोई कीमत नहीं होती । भीतर स्वार्थ और धोखा भरा हो ऐसी मीठी वाणी किस काम की ? अतः मनुष्य को सदैव प्रिय और हितकारी वाणी ही बोलनी चाहिए ।
( ६ ) नम्रता :
जब तक जीवन है, हमें नम्रतापूर्वक बोलना, बैठना, चलना एवं अन्यान्य व्यवहार करना चाहिए । जो अहंकारपूर्वक बोलता व व्यवहार करता है वह दुःखी रहता है, जबकि विनम्र व्यक्ति सर्वत्र आदर पाता है, सुखी रहता है ।
महान वैज्ञानिकों, विद्वानों, संतों, ऋषियों, मनीषियों, महापुरुषों एवं नारियों में यदि कोई सर्वाधिक अनुकरणीय गुण है तो वह है उनकी वाणी की सत्यता, निरहंकारिता और विनम्रता । अतः सर्वत्र विनम्र बनें ।
( ७ ) शिष्टता :
अपने से श्रेष्ठ लोगों से मिलते समय अत्यंत संयत एवं शिष्ट शब्दों के साथ उनका अभिवादन करें, समकक्ष लोगों से प्रेम के साथ मिलें तथा छोटों को स्नेह दें । शिष्टाचार में कभी पीछे मत रहें । कोई हमसे मिलने आया तो यह नहीं सोचना चाहिए कि जब वह हमसे हाथ जोड़कर नमस्कार करेगा या अपनी तरफ से बोलेगा तभी हम बोलेंगे, अपितु अपने ओर से स्नेह बरसाते हुए स्वयं बात शुरू करें । स्वयं उससे शिष्टतापूर्वक कुशल-क्षेम पूछें और यथाशक्ति सेवा-सहयोग करें क्योंकि हम भी कहीं जाते हैं, किसीसे मिलते हैं तो उसकी शिष्टता हमें प्रिय लगती है ।
जिस परिवार, ग्राम, समाज, विद्यालय, न्यायलय, संस्थान या सभा में लोग शिष्टता के साथ नहीं बोलते वहाँ प्रेम, न्याय, एकता, संगठन और मानवता के मूल सिद्धांत स्थिर नहीं रह सकते । वहाँ राग-द्वेष, हिंसा का ही साम्राज्य होगा, सुख-शांति वहाँ गुलर का फूल हो जायेगी । अतः शिष्ट वाणी बोलिये, शिष्टता के साथ पेश आइये ।
श्रीरामजी में अपने बड़प्पन का अहं नहीं था । बड़े लोगों में अपने बड़प्पन का अहं नहीं होता, यही उनका असली बड़प्पन होता है ।
2 thoughts on “सत्यं वद, धर्मं चर…”
वाक्यों में थोड़ी त्रुटियां है, कृपया सुधार करे।
धन्यवाद।
लेख पढ़ने के लिये धन्यवाद ।