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तेजस्वी जीवन की कुंजीः त्रिकाल-संध्या

त्रिकाल संध्या अर्थात् क्या – प्रातः सूर्योदय के 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक, दोपहर के 12 बजे से 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक एवं शाम को सूर्यास्त के 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक का समय संधिकाल कहलाता है । इड़ा और पिंगला नाड़ी के बीच में जो सुषुम्ना नाड़ी है, उसे अध्यात्म की नाड़ी भी कहा जाता है । उसका मुख संधिकाल में उर्ध्वगामी होने से इस समय प्राणायाम, जप, ध्यान करने से सहज में ज़्यादा लाभ होता है ।
अतः सुबह, दोपहर एवं सांय- इन तीनों समय संध्या करनी चाहिए । त्रिकाल संध्या करने वालों को अमिट पुण्यपुंज प्राप्त होता है । त्रिकाल संध्या में प्राणायाम, जप, ध्यान का समावेश होता है ।

त्रिकाल संध्या क्यों आवश्यक – भगवान राम संध्या करते थे, भगवान श्रीकृष्ण संध्या करते थे, भगवान राम के गुरूदेव वशिष्ठजी भी संध्या करते थे । मुसलमान लोग नमाज पढ़ने में इतना विश्वास रखते हैं कि वे चालू ऑफिससे भी समय निकालकर नमाज पढ़ने चले जाते हैं, जबकि हम लोग आज पश्चिम की मैली संस्कृति तथा नश्वर संसार की नश्वर वस्तुओं को प्राप्त करने की होड़-दौड़ में संध्या करना बन्द कर चुके हैं भूल चुके हैं । शायद ही एक-दो प्रतिशत लोग कभी नियमित रूप से संध्या करते होंगे । त्रिकाल संध्या करने वाले को कभी रोज़ी-रोटी की चिंता नहीं करनी पड़ती । त्रिकाल संध्या करने से असाध्य रोग भी मिट जाते हैं । ओज़, तेज, बुद्धि एवं जीवनशक्ति का विकास होता है ।

त्रिकाल संध्या कैसे करें  


एक ही धातु से दो शब्दों की उत्पत्ति हुई है – ध्यान और संध्या । मूल रूप से दोनों का एक ही लक्ष्य है । ध्यान करने से चित्त शुद्ध होता है, संध्या करने से मन निर्मल होता है । संध्या में आचमन, प्राणायाम, अंग-प्रक्षालन तथा बाह्यभ्यांतर शुचि की भावना करने का विधान होता है । प्राणायाम के बाद भगवन्नाम जप व भगवान का ध्यान करना होता है । इससे शरीर शुद्ध, मन प्रसन्न व बुद्धि तेजस्वी होती है तथा भगवान का ध्यान करने से चित्त चैतन्यमय होता है । इस समय महापुरूषों के सत्संग भी सुन सकते हैं । आध्यात्मिक उन्नति के लिए त्रिकाल संध्या का नियम बहुत उपयोगी है । 

 

त्रिकाल संध्या से लाभ

 
  • त्रिकाल संध्या करने वाले की कभी अपमृत्यु नहीं होती ।
  • त्रिकाल संध्या करने वाले ब्राह्मण को किसी के सामने हाथ फैलाने का दिन कभी नहीं आता है । शास्त्रों के अनुसार उसे रोजी रोटी की चिन्ता सताती नहीं है ।
  • त्रिकाल संध्या करने वाले व्यक्ति का चित्त शीघ्र निर्दोष हो जाता है, पवित्र हो जाता है, उसका मन तन्दुरूस्त रहता है, मन प्रसन्न रहता है तथा उसमें मन्द और तीव्र प्रारब्ध को परिवर्तित करने का सामर्थ्य आ जाता है । वह तरतीव्र प्रारब्ध का उपभोग करता है । उसको दुःख, शोक, हाय-हाय या चिन्ता कभी अधिक नहीं दबा सकती ।
  • त्रिकाल संध्या करने वाली पुण्यशीला बहनें और पुण्यात्मा भाई अपने कुटुम्बी और बाल-बच्चों को भी तेजस्विता प्रदान कर सकते हैं ।
  • त्रिकाल संध्या करने वाले का चित्त आसक्तियों में इतना अधिक नहीं डूबता । त्रिकाल संध्या करने वाले का मन पापों की ओर उन्मुख नहीं होता ।
  • त्रिकाल संध्या करने वाले व्यक्ति में ईश्वर-प्रसाद पचाने का सामर्थ्य आ जाता है ।
  • शरीर की स्वस्थता, मन की पवित्रता और अन्तःकरण की शुद्धि भी संध्या से प्राप्त होती है ।
  • त्रिकाल संध्या करने वाले भाग्यशालियों के संसार-बंधन ढीले पड़ने लगते हैं ।
  • त्रिकाल संध्या करने वाली पुण्यात्माओं के पुण्य-पुंज बढ़ते ही जाते हैं ।
  • त्रिकाल संध्या करने वाले के दिल और फेफड़े स्वच्छ और शुद्ध होने लगते हैं । उसके दिल में हरिगान अनन्य भाव से प्रकट होता है तथा जिसके दिल में अनन्य भाव से हरितत्त्व स्फुरित होता है, वह वास्तव में सुलभता से अपने परमेश्वर को, सोऽहम् स्वभाव को, अपने आत्म-परमात्मरस को यहीं अनुभव कर लेता है ।
  • ऐसे महाभाग्यशाली साधक-साधिकाओं के प्राण लोक-लोकांतर में भटकने नहीं जाते । उनके प्राण तो प्राणेश्वर में मिलकर जीवन्मुक्त दशा का अनुभव करते हैं । जैसे आकाश सर्वत्र है वैसे ही उनका चित्त भी सर्वव्यापी होने लगता है ।
  • जैसे ज्ञानी का चित्त आकाशवत् व्यापक होता है वैसे ही उत्तम प्रकार से त्रिकाल संध्या और आत्मज्ञान का विचार करने वाले साधक को सर्वत्र शांति, प्रसन्नता, प्रेम तथा आनन्द मिलता है ।
    जैसे पापी मनुष्य को सर्वत्र अशांति और दुःख ही मिलता है वैसे ही त्रिकाल संध्या करने वाले को दुश्चरित्रता की मुलाकात नहीं होती ।
    जैसे गारूड़ी मंत्र से सर्प भाग जाता है, वैसे ही गुरूमंत्र से पाप भाग जाते हैं और त्रिकाल संध्या करने शिष्य के जन्म-जन्मांतर के कल्मश, पाप, ताप जलकर भस्म हो जाते हैं ।

हाथ में जल रखकर सूर्य नारायण को अर्घ्य देने से भी अच्छा साधन आज के युग में मानसिक संध्या करना होता है, इसलिए जहाँ भी न रहे, तीनों समय थोड़े से जल के आचमन से, त्रिबन्ध प्राणायाम के माध्यम से संध्या कर देना चाहिए तथा प्राणायाम के दौरान अपने इष्ट मंत्र का जप करना चाहिए ।
भगवान सदाशिव पार्वती से कहते हैं, श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- ध्यान में अनन्य भाव से भगवान का चिन्तन करने वाला भगवान को सुलभता से प्राप्त करता है, उसके लिए भगवान सुलभ हो जाते हैं ।

  • जिस प्रकार आकाश जीवों के लिए सुलभ है, जिस प्रकार पापी के लिए दुःख और अशांति सुलभ है, धनाढ्य के लिए संसारी वस्तुएँ सुलभ हैं, उसी प्रकार अनन्य भाव से भगवान को भजने वालों के लिए भगवान सुलभ हैं । सर्वव्यापक चैतन्य के दर्शन करने का उसका सौभाग्य शीघ्र पूर्ण होने लगता है ।
    तस्याहं सुलभः पार्थः…. ।
    हकीकत तो यह है कि भगवान और अपने बीच में तनिक भी दूरी नहीं है । संसार और शरीर नश्वर हैं, कायम रह नहीं सकते, लेकिन आत्मा और परमात्मा किसी से दूर नहीं होते । जैसे घड़े का आकाश महाकाश से दूर नहीं होता । अथवा यूँ कहिये कि तरंग और पानी कभी अलग नहीं होते उसी प्रकार जीवात्मा और परमात्मा कभी अलग नहीं होते । अन्य-अन्य में आसक्ति के कारण जो दूरी की भ्रांति सिद्ध हुई है यह भ्रांति हटाने के लिए भगवान कहते हैं- “हे अर्जुन ! जो मेरे स्वरूप का चिन्तन करता है, अपने आत्मस्वरूप को खोजता है उसके लिए मैं सुलभ हो जाता हूँ ।”
    अतः प्रयत्नपूर्वक प्रातःकाल में सूर्योदय के पूर्व, मध्यान्ह में दोपहर 12 बजे के आसपास व शाम को सूर्यास्त के पूर्व संध्या में संलग्न हो जाना चाहिए ।

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