उत्तम जिज्ञासुः मैत्रेयी
महर्षि याज्ञवल्क्यजी की दो पत्नियाँ थीः मैत्रेयी और कात्यायनी । मैत्रेयी ज्येष्ठ थी । कात्यायनी की प्रज्ञा सामान्य स्त्रियों जैसी ही थी किंतु मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी थी ।
एक दिन याज्ञवाल्क्यजी ने अपनी दोनों पत्नियों को अपने पास बुलाया और कहाः “मेरा विचार अब संन्यास लेने का है । अतः इस स्थान को छोड़कर मैं अन्यत्र चला जाऊँगा । इसके लिए तुम लोगों की अनुमति लेना आवश्यक है । साथ ही, मैं यह भी चाहता हूँ कि घर में जो कुछ धन-दौलत है उसे तुम दोनों में बराबर-बराबर बाँट दूँ ताकि मेरे चले जाने के बाद इसको लेकर आपसी विवाद न हो ।”
यह सुनकर कात्यायनी तो चुप रही किंतु मैत्रेयी ने पूछाः “भगवन् ! यदि यह धन-धान्य से परिपूर्ण सारी पृथ्वी केवल मेरे ही अधिकार में आ जाय तो क्या मैं उससे किसी प्रकार अमर हो सकती हूँ?”
याज्ञवल्क्यजी ने कहाः “नहीं । भोग-सामग्रियों से संपन्न मनुष्यों का जैसा जीवन होता है, वैसा ही तुम्हारा भी जीवन हो जायेगा । धन से कोई अमर हो जाय, उसे अमरत्व की प्राप्ति हो जाय, यह कदापि संभव नहीं है ।”
तब मैत्रेयी ने कहाः “भगवन् ! जिससे मैं अमर नहीं हो सकती उसे लेकर क्या करूँगी ? यदि धन से ही वास्तविक सुख मिलता तो आप उसे छोड़कर एकान्त अरण्य में क्यों जाते? आप ऐसी कोई वस्तु अवश्य जानते हैं, जिसके सामने इस धन एवं गृहस्थी का सारा सुख तुच्छ प्रतीत होता है । अतः मैं भी उसी को जानना चाहती हूँ । यदेव भगवान वेद तदेव मे ब्रूहि । केवल जिस वस्तु को आप श्रीमान अमरत्व का साधन जानते हैं, उसी का मुझे उपदेश करें ।”
मैत्रेयी की यह जिज्ञासापूर्ण बात सुनकर याज्ञवल्क्यजी को बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने मैत्रेयी की प्रशंसा करते हुए कहाः
“धन्य मैत्रेयी ! धन्य ! तुम पहले भी मुझे बहुत प्रिय थी और इस समय भी तुम्हारे मुख से यह प्रिय वचन ही निकला है । अतः आओ, मेरे समीप बैठो । मैं तुम्हें तत्त्व का उपदेश करता हूँ । उसे सुनकर तुम उसका मनन और निदिध्यासन करो । मैं जो कुछ कहूँ, उस पर स्वयं भी विचार करके उसे हृदय में धारण करो ।”
इस प्रकार कहकर महर्षि याज्ञवल्क्यजी ने उपदेश देना आरंभ कियाः “मैत्रेयी ! तुम जानती हो कि स्त्री को पति और पति को स्त्री क्यों प्रिय है? इस रहस्य पर कभी विचार किया है ? पति इसलिए प्रिय नहीं है कि वह पति है, बल्कि इसलिए प्रिय है कि वह अपने को संतोष देता है, अपने काम आता है । इसी प्रकार पति को स्त्री भी इसलिए प्रिय नहीं होती कि वह स्त्री है, अपितु इसलिए प्रिय होती है कि उससे स्वयं को सुख मिलता । इसी न्याय से पुत्र, धन, ब्राह्मण, क्षत्रिय, लोक, देवता, समस्त प्राणी अथवा संसार के संपूर्ण पदार्थ भी आत्मा के लिए प्रिय होने से ही प्रिय जान पड़ते हैं । अतः सबसे प्रियतम वस्तु क्या है ? अपना आत्मा ।
आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो
निदिध्यासितव्यो मैत्रेयी आत्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन
मत्या विज्ञानेनेदं सर्वं विदितम् ।
मैत्रेयी ! तुम्हें आत्मा की ही दर्शन, श्रवण, मनन और निदिध्यासन करना चाहिए । उसी के दर्शन, श्रवण, मनन और यथार्थज्ञान से सब कुछ ज्ञात हो जाता है ।”
(बृहदारण्यक उपनिषद् 4-6)
तदनंतर महर्षि याज्ञवल्क्यजी ने भिन्न-भिन्न दृष्टान्तों और युक्तियों के द्वारा ब्रह्मज्ञान का गूढ़ उपदेश देते हुए कहाः “जहाँ अज्ञानावस्था में द्वैत होता है, वहीं अन्य अन्य को सूँघता है, अन्य अन्य का रसास्वादन करता है, अन्य अन्य का स्पर्श करता है, अन्य अन्य का अभिवादन करता है, अन्य अन्य का मनन करता है और अन्य अन्य को विशेष रूप से जानता है । किंतु जिसके लिए सब कुछ आत्मा ही हो गया है, वह किसके द्वारा किसे देखे? किसके द्वारा किसे सुने? किसके द्वारा किसे सूँघे? किसके द्वारा किसका रसास्वादन करे ? किसके द्वारा किसका स्पर्श करे? किसके द्वारा किसका अभिवादन करे और किसके द्वारा किसे जाने? जिसके द्वारा पुरुष इन सबको जानता है, उसे किस साधन से जाने?
इसलिए यहाँ ‘नेति-नेति‘ इस प्रकार निर्देश किया गया है । आत्मा अग्राह्य है, उसको ग्रहण नहीं किया जाता । वह अक्षर है, उसका क्षय नहीं होता । वह असंग है, वह कहीं आसक्त नहीं होता । वह निर्बन्ध है, वह कभी बन्धन में नहीं पड़ता । वह आनंदस्वरूप है, वह कभी व्यथित नहीं होता । हे मैत्रेयी ! विज्ञाता को किसके द्वारा जानें? अरे मैत्रेयी ! तुम निश्चयपूर्वक इसे समझ लो । बस, इतना ही अमरत्व है । तुम्हारी प्रार्थना के अनुसार मैंने ज्ञातव्य तत्त्व का उपदेश दे दिया ।”
ऐसा उपदेश देने के पश्चात् याज्ञवल्क्यजी संन्यासी हो गये । मैत्रेयी यह अमृतमयी उपदेश पाकर कृतार्थ हो गयी । यही यथार्थ संपत्ति है जिसे मैत्रेयी ने प्राप्त किया था । धन्य है मैत्रेयी ! जो बाह्य धन-संपत्ति से प्राप्त सुख को तृणवत् समझकर वास्तविक संपत्ति को अर्थात् आत्म-खजाने को पाने का पुरुषार्थ करती है । काश ! आज की नारी मैत्रेयी के चरित्र से प्रेरणा लेती….
( बृहदारण्यक उपनिषद् पर आधारित)
2 thoughts on “उत्तम जिज्ञासु – मैत्रेयी”
उत्तम अति उत्तम
बहुत ही प्रेरणादायी प्रसंग बताया है आपने।