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वेणाबाई की गुरुनिष्ठा

एक बार समर्थ रामदासजी मिरज गाँव (महाराष्ट्र) पधारे । वहाँ उन्होंने किसी विधवा कन्या को तुलसी के वृंदावन (गमले) के पास कोई ग्रंथ पढ़ते देख पूछा : “कन्या! कौन-सा ग्रंथ पढ़ रही हो?”

“एकनाथी भागवत ।”

“ग्रंथ तो अच्छा खोजा हैं किंतु उसका भागवत धर्म समझा क्या ?”

“स्वामीजी ! मुझे भोली-भली को क्या समझ में आयेगा और समझायेगा भी कौन ? मैं तो सिर्फ देख रही थी ।”

सच्चे, भोले व छल-कपटरहित मनवाले व्यक्ति पर भगवान व भगवत्प्राप्त महापुरुष सहज में ही बरस जाते हैं । समर्थजी भी उसकी यह सरल, निर्दोष हृदय की बात सुनकर प्रसन्न हो गये व मौन रहकर अपनी नूरानी नजरों से उस कन्या पर कृपा बरसा के चल दिये । उनकी कृपा से वेणा के हृदय में भागवत धर्म जानने की अत्यंत तीव्र उत्कंठा जाग उठी । उसने एक बुजुर्ग से भागवत धर्म समझाने के लिए आग्रह किया परंतु उन्होंने कहा : “बेटी ! तुझे जो सत्पुरुष मिले थे न, वे तो परमात्मा का प्रकट रूप हैं, भागवत धर्म का साक्षात् विग्रह हैं, वे ही तुझे भागवत धर्म का सही अर्थ बता सकते हैं ।”

यह सुनते ही वेणा के हृदय पटल पर समर्थजी की मनोहर छवि छा गयी और वह उनके दर्शन की आस में चातक की नाई व्याकुल रहने लगी । ईश्वर माँग और पूर्ति का विषय है । जिसकी तीव्र माँग, तीव्र तड़प होती हैं, ईश्वर और गुरु स्वयं ही उसके पास खिंचे चले आते हैं । वेणाबाई के हृदय की पुकार समर्थजी तक पहुँच गयी और वे भ्रमण करते हुए वहाँ आ पहुँचे । वेणा ने बड़े ही अहोभाव से उनका पूजन किया और मंत्रदीक्षा के लिए याचना की । वेणा की तडप देखकर समर्थ प्रसन्न हुए और उसे दीक्षा देकर पुन: यात्रा पर चले गये । इधर वेणा भगवत्प्रेम के रंग में ऐसी रँग गयी कि उसका सारा दिन गुरु-स्मरण, गुरुमंत्र-जप व कीर्तन-ध्यान में बीतने लगा ।

कुछ दिनों बाद वेणाबाई को पता चला कि गुरु समर्थ का कीर्तन-सत्संग कोल्हापुर के माँ अम्बा मंदिर में चल रहा है । वेणा तुरंत वहाँ पहुँची । अब वह नित्य अपने गुरुदेव का सत्संग एकाग्रता व प्रेम से सुनती, गुरूजी को एकटक देखती और तत्परता से वहाँ सेवा करती । जब समर्थ का कीर्तन होता तो उसमें वह इतनी तन्मय होती कि उसे अपनी देह की भी सुध नहीं रहती । जब गुरूजी का वहाँ से प्रस्थान करने का समय आया तो वेणा ने गुरूजी को उनके साथ उसे भी ले चलने की प्रार्थना की ।

समर्थजी ने लोकनिंदा का भय बताकर वेणा के समर्पण की परीक्षा लेनी चाही । वेणाबाई ने कहा : “गुरुदेव ! संसारी लोग मेरे उद्धार का मार्ग नही जानते तो उनकी बात मानने से मुझे क्या लाभ ? यदि आप मुझे साथ नहीं ले गये तो ये प्राण इस तन में नहीं रह पायेंगे । निरर्थक आयुष्य बिताने से मरना अच्छा !” वेणा की निष्ठा देखकर समर्थजी अति प्रसन्न हुए तथा उसे आश्वासन दिया कि समय आने पर वे उसे जरुर ले जायेंगे ।

गुरु-शिष्या की इस वार्ता को सुनकर किन्ही दुष्ट लोगों ने वेणा के सास-ससुर के कान भर दिये । सास-ससुर ने बीना कुछ सोचे-समझे वेणाबाई को हमेशा के लिए मायके भेज दिया । वहाँ भी स्वार्थी संसार ने अपना असली रूप दिखाया । लोकनिंदा के भय से माता-पिता ने वेणा को जहर खिला दिया । जहर के प्रभाव से वेणा के प्राण निकलने लगे लेकिन धन्य है उसकी गुरुनिष्ठा ! धन्य है उसकी ईश्वरप्रीति ! कि मौत गले का हार बन रही है और वेणा को अब मुझे गुरु माउली का दर्शन-सान्निध्य कैसे मिलेगा ?’ यह दुःख सताये जा रहा है । शिष्या की पुकार सुन गुरु समर्थ वेणा के कमरे में प्रकट हो गये । भारी पीड़ा में भी वेणा ने गुरूजी के चरणों में प्रणाम किया । गुरु समर्थ ने वेणा के मस्तक पर अपना कृपाहस्त रखा और उसके शरीर में नवचेतना का संचार हो गया ।

माता-पिता ने जैसे ही दरवाजा खोला तो आश्चर्य ! वेणा बड़े आनंद से गुरूजी से उपदेश सुन रही थी । अपने स्वार्थपूर्ण दुष्कृत्य से लज्जित हो माँ-बाप ने समर्थजी से क्षमा माँगी : “ महाराज ! लोकनिंदा के भय से हमसे इतना बड़ा अपराध हो गया । अब आपकी कृपा से हमारी वेणा हमें वापस मिल गयी ।”

समर्थजी मुस्कराये, बोले : “तुम्हारी वेणा ! वाह तो जब तुमने विष दिया तभी मर गयी थी । अब जो वेणा तुम्हे दिख रही है, वह समर्थ की सतशिष्या ‘वेणाबाई ‘ है और अब वह रामजी की सेवा के लिए जायेगी ।”

माता-पिता ने वेणा को जाने से बहुत रोका किंतु उसके चित्त में वैराग्य का सागर हिलोरें ले रहा था, वह एक पल भी नहीं रुकी ।

समर्थ रामदासजी के सान्निध्य में रहते हुए वेणाबाई बड़ी निष्ठा एवं सत्संगीयों के लिए भोजन बनाना आदि सेवाओं में लगाती थी और कुछ समय सत्संग-कीर्तन-ध्यान में आकर तन्मय हो जाती । उसकी सेवानिष्ठा से सभी प्रसन्न थे । समय पाकर प्रखर सेवा-साधना के प्रभाव से उसका भक्तियोग फलित हो गया और गुरुकृपा से उसके ह्रदय में भागवत धर्म का रहस्य प्रकट हो गया ।

एक बार रामनवमी के उत्सव पर वेणा ने गुरुदेव समर्थ से देह छोडकर राम-तत्व से एकाकार होने की आज्ञा माँगी । समर्थ बोले : “समय आने पर मैं स्वयं तुझे आज्ञा दूँगा ।” वेणाबाई ने गुरुआज्ञा शिरोधार्य की ।

कुछ दिनों बाद अचानक समर्थजी बोले : “वेणे ! आज तेरा कीर्तन सुनने के बाद मैं तुम्हे निर्वाण देता हूँ ।”

गुरुहृदय का छलकता प्रेम वेणाबाई ने पचा लिया था । उसने गुरूजी को प्रणाम किया और कीर्तन में तन्मय हो गयी । कीर्तन चला तो ऐसा चला, मानो भक्तिरस के सागर में ज्वार आकर वह चर्म पर पहुँच गया हो । वेणाबाई के वियोग की घड़ियाँ जानकर सभीकी आँखों से आँसुओं की धाराएँ बह चलीं । कीर्तन पूरा होते – होते वेणा की भावसमाधि लग गयी । समर्थजी भी कुछ समय समाधिस्थ हुए, फिर बोले “वेणा ! तुमने गुरुभक्ति व निष्ठा की अखंड ज्योत जलाकर असंख्य लोगों को भक्ति का मार्ग दिखाया है। तुम्हारा जीवन सार्थक हो गया है । अब तुम आनंद से रामचरण में जाओ ।”

वेणाबाई भावविभोर होकर बोली : “करुणासागर गुरुदेव ! जीवनभर मैंने आपके ही चरणों में सच्चा सुख, सच्चा ज्ञान, सच्चे आनंद की अनुभूति पायी हैं । आपके चरण ही मेरे लिए रामचरण हैं, उन्हीमे मुझे परम विश्रांति मिलेगी ।” ऐसा कहते-कहते वेणाबाई ने समर्थजी के चरणों में अपना मस्तक रखा और ‘रामदास माऊली’ शब्दों का उच्चारण कर वह राम-तत्त्व से एकाकार हो गयी ।

धन्य है वेणाबाई की गुरुभक्ति और गुरुनिष्ठा ! वेणा का तुलसी –वृंदावन आज भी उसकी गुरुभक्ति की अमर गाथाएँ सुनाता है ।

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