वीरांगना सुन्दरबाई
आर्यनारियों ने समय-समय पर अपनी वीरता और साहस की कड़ी परीक्षा देकर अपने सतीत्व और स्वाभिमान को सुरक्षित रखा हैं । कायरता मनुष्य की सबसे बड़ी अयोग्यता है । वीरता उसका सबसे बड़ा बल है । क्षत्राणियों की जीवन सहचरी वीरता ही थी ; उनकी चरित्र में से वीरता का अंश निकाल लिया जाय तो उनमें और एक साधारण नारी में कुछ भी अन्तर नहीं दिखेगा ।
कुछ ही समय पहले की बात है, शैलपुर का केसरी सिंह राजा था । उसकी लड़की का नाम सुन्दरबाई था । ‘यथा नाम तथा गुण:’ की सार्थकता की वह प्रतिमूर्ति ही थी । उस समय आसपास में उसके समान सुंदरी कन्याएँ कम ही थी । वह संस्कृत की पूर्ण पण्डिता थी । राजनीति का उसे अच्छा ज्ञान था । जिस तरह वह सुन्दरता में अद्वितीय थी, उसी तरह न्याय शास्त्र में भी पारङ्गता थी । वचन की बड़ी पक्की थी । सोलह साल की अवस्था में ही उसने राजकन्या के लिये आवश्यक सारे गुणों में पूरी-पूरी योग्यता पा ली थी ।
एक दिन वह राजोद्यान में सहेलियों के साथ विचर रही थी । आपस में राग-रंग की बातें हो रही थीं । सहेलियाँ तरह-तरह के आमोद-प्रमोद से राजकुमारी का मन बहला रही थीं । एक ने कहा कि ‘जब मैं पति के घर जाऊँगी तो उसके साथ अमुक बर्ताव करुँगी ।’ एक ने कहा कि ‘मैं तो वल्लभीपुर के राजकुमार वीर सिंह की पत्नी बनकर उन्हें अपनी वीरता और पराक्रम से मोहित कर लूँगी ।’ संयोग से उसी उपवन में एक पेड़ के नीचे घोड़े की पीठ से उतरकर एक युवक सैनिक विश्राम कर रहा था । उसे यह बात समझने में थोड़ी भी देर न लगी कि बाग शैलपुर के राजा केसरी सिंह का है । वह तुरंत चल पड़ा, वीर युवक वल्लभीपुर का राजकुमार वीर सिंह था ।
उसने वल्लभीपुर पहुँचकर पिता से सारी बातें बतला दीं और केसरी सिंह के पास विवाह के लिये संदेश भेजा । राजा ने स्वीकृति से यथासमय विवाह हो गया, परंतु वीरसिंह तो अपनी सहधर्मिणी की परीक्षा लेना चाहता था । सुन्दरबाई को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि उसके पति ने उससे मिलाना-जुलना बंद कर दिया ।
एक दिन वह सायंकाल राजमन्दिर में सखी-सहेलियों के साथ देवपूजन के लिये गयी । राजकुमार ने उससे वही मिलना उचित समझा । मंदिर के भीतर पुरुषों को जाने की आज्ञा नहीं थीं ; परंतु राजकुमार के लिये कोई रोक नहीं थीं, वह अंदर चला गया ।
उसने सुन्दरबाई को कहते सुना, ‘परमात्मा ! मेरे पति का मङ्गल हो ।’ राजकुमार ने कहा, ‘तुमने जो प्रतिज्ञा बगीचे में की थी, उसे पूरी करो ।’ सुन्दरबाई की समझ में सारा कच्चा-चिट्ठा आ गया । उसने एक वीर क्षत्राणी की तरह देवता के सामने पति की उपस्थिति में यह बात दुहरायी कि ‘मैं सिद्ध करके ही रहूँगी कि राजपूतानी की बातों में कितनी दृढ़ता होती है ।’
दूसरे ही दिन उस बुद्धिमति ने पिता के पास गुप्तरूप से एक पत्र भेजा कि ‘मेरे लिये एक घोड़ा और कवच भेज दीजिये ।’ उसने उस पत्र में अपनी प्रतिज्ञा की भी बात लिख दी थी । केसरी सिंह ने शैलपुर से वल्लभीपुर तक एक सुरंग खुदवा डाली और पुत्री द्वारा माँगी गयी वस्तुएँ उसके पास भेज दी ।
वल्लभीपुर का दरबार लगा हुआ था बड़े-बड़े सामन्त और सरदार बैठे हुए थे । राजकुमार वीरसिंह भी पिता के वामकक्ष में उपस्थित थे । इतने में ही एक घुड़सवार ने ‘जुहार’ की रस्म अदा कर नौकरी के लिये आवेदनपत्र दिया । राजा ने उसकी सुन्दरता की ओर आकृष्ट होकर पूछा – ‘तुम्हारा नाम क्या है और किस तरह की नौकरी चाहते हो ?’ उसने अपना नाम रत्नसिंह बतलाया और निर्भीक होकर कहा – ‘मैं युद्ध में वह काम कर सकता हूँ, जो किसी वीर से न हो सके । ‘ राजा बड़े प्रसन्न हुए और वीरसिंह तो दंग रह गये । उसे नौकरी मिल गयी । राजकुमार वीरसिंह और रत्नसिंह में धीरे-धीरे खूब पटने लगी । दोनों एक-दूसरे के मित्र हो गये, यहाँ तक कि बिना एक-दूसरे को देखे उन दोनों को सुकून नहीं मिलता था । दोनों साथ-ही-साथ जंगल में शिकार खेलने जाते थे और जीवन का अधिकांश समय एक ही साथ बिताते थे । कभी रत्नसिंह वीरसिंह के मुख से यह सुनकर कि ‘सुन्दरबाई तो बड़ी कठोर हृदया है, मेरा तनिक भी खयाल नहीं करती ‘रत्नसिंह ठहाका मारकर हँस पड़ता था ।
एक बार रत्नसिंह ने राजा के कहने पर एक सिंह को मार डाला, जो नगर-निवासियों की एक-एक करके रात में भक्षण कर लिया करता था । राजा और वीरसिंह दोनों उसे श्रद्धा और आदर की दृष्टिसे देखने लगे । इसके कुछ ही दिनों बाद वल्लभीपुर पर एक समीपवर्ती राजा ने अधिकार कर लिया और वीरसिंह को कैद कर लिया । वीरसिंह को यह नहीं मालूम था कि रत्नसिंह पुरुष नहीं, उसकी पत्नी सुन्दरबाई है । अपने पिता की सहायता से उसने वल्लभीपुर पर अधिकार कर लिया और शत्रुओं को नगर से बाहर कर दिया । शैलपुर से सुरंग के रास्ते से ही वल्लभीपुर में सेना आयी थी ; वीरसिंह और उसके पिता को आश्चर्य हुआ कि जिस सुरंग का उन्हें पता तक नहीं था यद्यपि वह उनके ही महल तक थी, रत्नसिंह ने किस तरह उसका भेद जान लिया । राजा ने उसे अच्छी तरह पुरस्कृत किया ।
एक दिन रत्नसिंह की बड़ी खोज हुई, परंतु पता न चला । राजकुमार वीरसिंह को पता चला कि वह अभी-अभी सुन्दरबाई के महल में गया है । राजकुमार का चेहरा लाल हो गया । महल में जाकर उसने सुन्दर से पूछा – ‘रत्नसिंह कहाँ हैं ?’ – सुन्दरबाई ने चरणों में गिरकर सारी बातें बतला दीं । दोनों स्त्री-पुरुष गले मिले । परीक्षा समाप्त हो गयी, क्षत्राणी ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर पति का मन वश में कर लिया ।
1 thought on “वीरांगना सुंदरबाई”
Very nice story about women’s courage हरि ॐ