विवेक की धनीः कर्मावती
यह कथा सत्यस्वरूप ईश्वर को पाने की तत्परता रखनेवाली, भोग-विलास को तिलांजलि देने वाली, विकारों का दमन और निर्विकार नारायण स्वरुप का दर्शन करने वाली उस बच्ची की है जिसने न केवल अपने को तारा, अपितु अपने पिता राजपुरोहित परशुरामजी का कुल भी तार दिया ।
जयपुर-सीकर के बीच महेन्द्रगढ़ के सरदार शेखावत के राजपुरोहित परशुरामजी की उस बच्ची का नाम था कर्मा, कर्मावती । बचपन में वह ऐसे कर्म करती थी कि उसके कर्म शोभा देते थे । कई लोग कर्म करते हैं तो कर्म उनको थका देते हैं । कर्म में उनको फल की इच्छा होती है । कर्म में कर्तापन होता है ।
कर्मावती के कर्म में कर्तापन नहीं था, ईश्वर के प्रति समर्पण भाव थाः ‘जो कुछ कराता है प्रभु ! तू ही कराता है । अच्छे काम होते हैं तो नाथ ! तेरी कृपा से ही हम कर पाते हैं ।’ कर्मावती कर्म करती थी, लेकिन कर्ताभाव को विलय होने का मौका मिले उस ढंग से करती थी ।
कर्मावती तेरह साल की हुई । गाँव में साधु-संत पधारे । उन सत्पुरुषों से गीता का ज्ञान सुना, भगवदगीता का माहात्म्य सुना । अच्छे-बुरे कर्मों के बन्धन से जीव मनुष्य-लोक में जन्मता है, थोड़ा-सा सुखाभास पाता है परंतु काफी मात्रा में दुःख भोगता है । जिस शरीर से सुख-दुःख भोगता है, वह शरीर तो जीवन के अंत में जल जाता है, लेकिन भीतर सुख पाने का, सुख भोगने का भाव बना रहता है । यह कर्ता-भोक्तापन का भाव तब तक बना रहता है, जब तक मन की सीमा से परे परमात्मा-स्वरूप का बोध नहीं होता ।
कर्मावती इस प्रकार का सत्संग खूब ध्यान देकर, आँखों की पलकें कम गिरें इस प्रकार सुनती थी । वह इतना एकाग्र होकर सत्संग सुनती कि उसका सत्संग सुनना बंदगी हो जाता था ।
एकटक निहारते हुए सत्संग सुनने से मन एकाग्र होता है । सत्संग सुनने का महापुण्य तो होता ही है, साथ ही साथ मनन करने का लाभ भी मिल जाता है और निदिध्यासन भी होता रहता है ।
दूसरे लोग सत्संग सुनकर थोड़ी देर के बाद कपड़े झाड़कर चल देते और सत्संग की बात भूल जाते । लेकिन कर्मावती सत्संग को भूलती नहीं थी, सत्संग सुनने के बाद उसका मनन करती थी । मनन करने से उसकी योग्यता बढ़ गयी । जब घर में अनुकूलता या प्रतिकूलता आती तो वह समझती कि जो आता है वह जाता है । उसको देखनेवाला मेरा राम, मेरा कृष्ण, मेरा आत्मा, मेरे गुरुदेव, मेरा परमात्मा केवल एक है । सुख आयेगा – जायेगा, पर मैं चैतन्य आत्मा एकरस हूँ, ऐसा उसने सत्संग में सुन रखा था ।
सत्संग को खूब एकाग्रता से सुनने और बाद में उसे स्मरण-मनन करने से कर्मावती ने छोटी उम्र में खूब ऊँचाई पा ली । वह बातचीत में और व्यवहार में भी सत्संग की बातें ला देती थी । फलतः व्यवहार के द्वन्द्व उसके चित्त को मलिन नहीं करते थे । उसके चित्त की निर्मलता व सात्त्विकता बढ़ती गयी ।
मैं तो महेन्द्रगढ़ के उस सरदार खंडेरकर शेखावत को भी धन्यवाद दूँगा क्योंकि उसके राजपुरोहित हुए थे परशुराम और परशुराम के घर आयी थी कर्मावती जैसी पवित्र बच्ची । जिनके घर में भक्त पैदा हो वे माता-पिता तो भाग्यशाली हैं ही, पवित्र हैं, वे जहाँ नौकरी करते हैं वह जगह, वह आफिस, वह कुर्सी भी भाग्यशाली है । जिसके यहाँ वे नौकरी करते हैं वह भी भाग्यशाली हैं कि भक्त के माता-पिता उसके यहाँ आया-जाया करते हैं ।
राजपुरोहित परशुराम भी भगवान के भक्त थे । संयमी जीवन था उनका । वे सदाचारी थे, दीन-दुःखियों की सेवा किया करते थे, गुरु-दर्शन में रूचि और गुरु-वचन में विश्वास रखने वाले थे । ऐसे पवित्रात्मा के यहाँ जो संतान पैदा हो, उसका भी ओजस्वी-तेजस्वी होना स्वाभाविक है ।
कर्मावती पिता से भी बहुत आगे बढ़ गयी । कहावत है कि ‘बाप से बेटा सवाया होना चाहिए’ लेकिन यह तो बेटी सवायी हो गई भक्ति में !
परशुराम सरदार के कामकाज में व्यस्त रहते, अतः कभी सत्संग में जा पाते कभी नहीं, पर कर्मावती हर रोज नियमित रूप से अपनी माँ को लेकर सत्संग सुनने पहुँच जाती है । परशुराम सत्संग की बात भूल भी जाते परंतु कर्मावती याद रखती ।
कर्मावती ने घर में पूजा के लिए एक कोठरी बना ली थी । वहाँ संसार की कोई बात नहीं, केवल माला और जप ध्यान । उसने उस कोठरी को सात्त्विक सुशोभनों से सजाया था । बिना हाथ-पैर धोये, नींद से उठकर बिना स्नान किये उसमें प्रवेश नहीं करती थी । धूप-दीप-अगरबत्ती से और कभी-कभी ताजे खिले हुए फूलों से कोठरी को पावन बनाया करती, महकाया करती । उसके भजन की कोठरी मानों, भगवान का मंदिर ही बन गयी थी । वह ध्यान-भजन नहीं करनेवाले निगुरे कुटुम्बियों को नम्रता से समझा-बुझाकर उस कोठरी में नहीं आने देती थी । उसकी उस साधना-कुटीर में भगवान की ज्यादा मूर्तियाँ नहीं थीं । वह जानती थी कि अगर ध्यान-भजन में रूचि न हो तो वे मूर्तियाँ बेचारी क्या करेंगी? ध्यान-भजन में सच्ची लगन हो तो एक ही मूर्ति काफी है ।
साधक अगर एक ही भगवान की मूर्ति या गुरुदेव के चित्र को एकटक निहारते-निहारते आंतर यात्रा करे तो ‘एक में ही सब है और सब में एक ही है’ यह ज्ञान होने में सुविधा रहेगी । जिसके ध्यान-कक्ष में, अभ्यास-खण्ड में या घर में बहुत से देवी-देवताओं के चित्र हों, मूर्तियाँ हों तो समझ लेना, उसके चित्त में और जीवन में काफी अनिश्चितता होगी ही । क्योंकि उसका चित्त अनेक में बँट जाता है, एक पर पूरा भरोसा नहीं रहता ।
कर्मावती ने साधन-भजन करने का निश्चित नियम बना लिया था । नियम पालने में वह पक्की थी । जब तक नियम पूरा न हो तब तक भोजन नहीं करती । जिसके जीवन में ऐसी दृढ़ता होती है, वह हजारों विघ्न-बाधाओं और मुसीबतों को पैरों तले कुचलकर आगे निकल जाता है ।
कर्मावती 13 साल की हुई । उस साल उसके गाँव में चातुर्मास करने के लिए संत पधारे । कर्मावती एक दिन भी कथा सुनना चूकी नहीं । कथा-श्रवण के साररूप उसके दिल-दिमाग में निश्चय दृढ़ हुआ कि जीवनदाता को पाने के लिए ही यह जीवन मिला है, कोई गड़बड़ करने के लिए नहीं । परमात्मा को नहीं पाया तो जीवन व्यर्थ है ।
न पति अपना है न पत्नी अपनी है, न बाप अपना है न बेटे अपने हैं, न घर अपना है न दुकान अपनी है । अरे, यह शरीर तक अपना नहीं है तो और की क्या बात करें? शरीर को भी एक दिन छोड़ना पड़ेगा, श्मशान में उसे जलाया जायेगा ।
कर्मावती के हृदय में जिज्ञासा जगी कि शरीर जल जाने से पहले मेरे हृदय का अज्ञान कैसे जले? मैं अज्ञानी रहकर बूढ़ी हो जाऊँ, आखिर में लकड़ी टेकती हुई, रुग्ण अवस्था में अपमान सहती हुई, कराहती हुई अन्य बुढ़ियाओं की नाईं मरुँ यह उचित नहीं । यह कभी-कभी वृद्धों को, बीमार व्यक्तियों को देखती और मन में वैराग्य लाती कि मैं भी इसी प्रकार बूढ़ी हो जाऊँगी, कमर झुक जायेगी, मुँह पोपला हो जायेगा । आँखों से पानी टपकेगा, दिखाई नहीं देगा, सुनाई नहीं देगा, शरीर शिथिल हो जायेगा । यदि कोई रोग हो जायेगा तो और मुसीबत । किसी की मृत्यु होती तो कर्मावती उसे देखती, जाती हुई अर्थी को निहारती और अपने मन को समझातीः “बस ! यही है शरीर का आखिरी अंजाम? जवानी में सँभाला नहीं तो बुढ़ापे में दुःख भोग-भोगकर आखिर मरना ही है । राम…..! राम…..!! राम…..!!! मैं ऐसी नहीं बनूँगी । मैं तो बनूँगी भगवान की जोगिन मीराबाई । मैं तो मेरे प्यारे परमात्मा को रिझाऊँगी ।’
कर्मावती कभी वैराग्य की अग्नि में अपने को शुद्ध करती है, कभी परमात्मा के स्नेह में भाव विभोर हो जाती है, कभी प्यारे के वियोग में आँसू बहाती है तो कभी सुनमुन होकर बैठी रहती है । मृत्यु तो किसी के घर होती है और कर्मावती के हृदय के पाप जलने लगते हैं । उसके चित्त में विलासिता की मौत हो जाती है, संसारी तुच्छ आकर्षणों का दम घुट जाता है और हृदय में भगवदभक्ति का दिया जगमगा उठता है ।
किसी की मृत्यु होने पर भी कर्मावती के हृदय में भक्ति का दिया जगमगाने लगता और किसी की शादी हो तब भी भक्ति का दिया ही जगमगाता । वह ऐसी भावना करती कि
मैं ऐसे वर को क्यों वरूँ, जो उपजे और मर जाय ।
मैं तो वरूँ मेरे गिरधर गोपाल को, मेरो चूडलो अमर हो जाय ।
मीरा ने इसी भाव को प्रकटाकर, दुहराकर अपने जीवन को धन्य कर लिया था ।
कर्मावती ने भगवदभक्ति की महिमा सुन रखी थी कि एक ब्राह्मण युवक था । उसने अपना स्वभावजन्य कर्म नहीं किया । केवल विलासी और दुराचारी जीवन जिया । जो आया सो खाया, जैसा चाहा वैसा भोगा, कुकर्म किये । वह मरकर दूसरे जन्म में बैल बना और किसी भिखारी के हाथ लगा । वह भिखारी बैल पर सवारी करता और बस्ती में घूम-फिरकर, भीख माँगकर अपना गुजारा चलाता ।
दुःख सहते-सहते बैल बूढ़ा हो गया, उसके शरीर की शक्ति क्षीण हो गयी । वह अब बोझ ढोने के काबिल नहीं रहा । भिखारी ने बैल को छोड़ दिया । रोज-रोज व्यर्थ में चारा कहाँ से खिलाये? भूखा प्यासा बैल इधर-उधर भटकने लगा । कभी कहीं कुछ रूखा-सूखा मिल जाता तो खा लेता । कभी लोगों के डण्डे खाकर ही रह जाना पड़ता ।
बारिश के दिन आये । बैल कहीं कीचड़ के गड्डे में उतर गया और फँस गया । उसकी रगों में ताकत तो थी नहीं । फिर वहीं छटपटाने लगा तो और गहराई में उतरने लगा । पीठ की चमड़ी फट गयी, लाल धब्बे दिखाई देने लगे । अब ऊपर से कौएँ चोंच मारने लगे, मक्खियाँ भिनभिनाने लगीं । निस्तेज, थका मांदा, हारा हुआ वह बूढ़ा बैल अगले जन्म में खूब मजे कर चुका था, अब उनकी सजा भोग रहा है । अब तो प्राण निकलें तभी छुटकारा हो । वहाँ से गुजरते हुए लोग दया खाते कि बेचारा बैल ! कितना दुःखी है ! हे भगवान ! इसकी सदगति हो जाय ! कितना दुःखी है ! हे भगवान ! इसकी सदगति हो जाये ! वे लोग अपने छोटे-मोटे पुण्य प्रदान करते फिर भी बैल की सदगति नहीं होती थी ।
कई लोगों ने बैल को गड्डे से बाहर निकालने की कोशिश की, पूँछ मरोड़ी, सींगों में रस्सी बाँधकर खींचा-तानी की लेकिन कोई लाभ नहीं । वे बेचारे बैल को और परेशान करके थककर चले गये ।
एक दिन कुछ बड़े-बूढ़े लोग आये और विचार करने लगे कि बैल के प्राण नहीं निकल रहे हैं, क्या किया जाये? लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गयी । उस टोले में एक वेश्या भी थी । वेश्या ने कुछ अच्छा संकल्प किया ।
वह हर रोज तोते के मुँह से टूटी-फूटी गीता सुनती । समझती तो नहीं फिर भी भगवदगीता के श्लोक तो सुनती थी । भगवदगीता आत्मज्ञान देती है, आत्मबल जगाती है । गीता वेदों का अमृत है । उपनिषदरूपी गायों को दोहकर गोपालनन्दन श्रीकृष्णरूपी ग्वाले ने गीतारूपी दुग्धामृत अर्जुन को पिलाया है । यह पावन गीता हर रोज सुबह पिंजरे में बैठा हुआ तोतो बोलता था, वह सुनती थी । वेश्या ने इस गीता-श्रवण का पुण्य बैल की सदगति के लिए अर्पण किया ।
जैसे ही वेश्या ने संकल्प किया कि बैल के प्राण-पखेरु उड़ गये । उसी पुण्य के प्रभाव से वह बैल सोमशर्मा नामक ब्राह्मण के घर बालक होकर पैदा हुआ । बालक जब 6 साल का हुआ तो उसके यज्ञोपवीत आदि संस्कार किये गये । माता-पिता ने कुल-धर्म के पवित्र संस्कार किये गये । माता-पिता ने कुल-धर्म के पवित्र संस्कार दिये । उसकी रूचि ध्यान-भजन में लगी । वह आसन, प्राणायाम, ध्यानाभ्यास आदि करने लगा । उसने योग में तीव्रता से प्रगति कर ली और 18 साल की उम्र में ध्यान के द्वारा अपना पूर्वजन्म जान लिया । उसको आश्चर्य हुआ कि ऐसा कौन-सा पुण्य उस बाई ने अर्पण किया जिससे मुझे बैल की नारकीय अवस्था से मुक्ति मिली व जप-तप करने वाले पवित्र ब्राह्मण के घर जन्म मिला?
ब्राह्मण युवक पहुँचा वेश्या के घर । वेश्या अब तक बूढ़ी हो चुकी थी । वह अपने कृत्यों पर पछतावा करने लगी थी । अपने द्वार पर ब्राह्मण कुमार को आया देखकर उसने कहाः
“मैंने कई जवानों की जिन्दगी बरबाद की है, मैं पाप-चेष्टाओं में गरक रहते-रहते बूढ़ी हो गयी हूँ । तू ब्राह्मण का पुत्र ! मेरे द्वार पर आते तुझे शर्म नहीं आती?”
“मैं ब्राह्मण का पुत्र जरूर हूँ पर विकारी और पाप की निगाह से नहीं आया हूँ । माताजी ! मैं तुमको प्रणाम करके पूछने आया हूँ कि तुमने कौन सा पुण्य किया है?”
“भाई ! मैं तो वेश्या ठहरी । मैंने कोई पुण्य नहीं किया है?”
“उन्नीस साल पहले किसी बैल को कुछ पुण्य अर्पण किया था?”
“हाँ….. स्मरण में आ रहा है । कोई बूढ़ा बैल परेशान हो रहा था, प्राण नहीं छूट रहे थे बेचारे के । मुझे बहुत दया आयी । मेरे और तो कोई पुण्य थे नहीं । किसी ब्राह्मण के घर में चोर चोरी करके आये थे । उस सामान में तोते का एक पिंजरा भी था जो मेरे यहाँ छोड़ गये । उस ब्राह्मण ने तोते को श्रीमदभगवदगीता के कुछ श्लोक रटाये थे । वह मैं सुनती थी । उसी का पुण्य उस बैल को अर्पण किया था ।
ब्राह्मण कुमार को ऐसा लगा कि यदि भगवदगीता का अर्थ समझे बिना केवल उसका श्रवण ही इतना लाभ कर सकता है तो उसका मनन और निदिध्यासन करके गीता-ज्ञान पचाया जाये तो कितना लाभ हो सकता है ! वह पूर्ण शक्ति से चल पड़ा गीता-ज्ञान को जीवन में उतारने के लिए ।
कर्मावती को जब गीता-माहात्म्य की यह कथा सुनने को मिली तो उसने भी गीता का अध्ययन शुरु कर दिया । भगवदगीता में तो प्राणबल है, हिम्मत है, शक्ति है । कर्मावती के हृदय में भगवान श्रीकृष्ण के लिए प्यार पैदा हो गया । उसने पक्की गाँठ बाँध ली कि कुछ भी हो जाये मैं उस बाँके बिहारी के आत्म-ध्यान को ही अपना जीवन बना लूँगी, गुरुदेव के ज्ञान को पूरा पचा लूँगी । मैं संसार की भट्ठी में पच-पचकर मरूँगी नहीं, मैं तो परमात्म-रस के घूँट पीते-पीते अमर हो जाऊँगी ।
कर्मावती ने ऐसा नहीं किया कि गाँठ बाँध ली और फिर रख दी किनारे । नहीं…. एक बार दृढ़ निश्चय कर लिया तो हर रोज सुबह उस निश्चय को दुहराती, अपने लक्ष्य का बार-बार स्मरण करती और अपने आपसे कहा करती कि मुझे ऐसा बनना है । दिन-प्रतिदिन उसका निश्चय और मजबूत होता गया ।
कोई एक बार निर्णय कर ले और फिर अपने निर्णय को भूल जाये तो उस निर्णय की कोई कीमत नहीं रहती । निर्णय करके हर रोज उसे याद करना चाहिए, उसे दुहराना चाहिए कि हमें ऐसा बनना है । कुछ भी हो जाये, निश्चय से हटना नहीं है ।
हमें रोक सके ये जमाने में दम नहीं ।
हमसे जमाना है जमाने से हम नहीं । ।
पाँच वर्ष के ध्रुव ने निर्णय कर लिया तो विश्वनियंता विश्वेश्वर को लाकर खड़ा कर दिया । प्रह्लाद ने निर्णय कर लिया तो स्तंभ में से भगवान नृसिंह को प्रकट होना पड़ा । मीरा ने निर्णय कर लिया तो मीरा भक्ति में सफल हो गयी ।
प्रातः स्मरणीय परम पूज्य स्वामी श्री लीलाशाहजी बापू ने निर्णय कर लिया तो ब्रह्मज्ञान में पारंगत हो गये । हम अगर निर्णय करें तो हम क्यों सफल नहीं होंगे? जो साधक अपने साधन-भजन करने के पवित्र स्थान में, ब्राह्ममूहूर्त के पावन काल में महान बनने के निर्णय को बार-बार दुहराते हैं उनको महान होने से दुनिया की कोई ताकत रोक नहीं सकती ।
कर्मावती 18 साल की हुई । भीतर से जो पावन संकल्प किया था उस पर वह भीतर-ही-भीतर अडिग होती चली गयी । वह अपना निर्णय किसी को बताती नहीं थी ।, प्रचार नहीं करती थी, हवाई गुब्बारे नहीं उड़ाया करती थी अपितु सत्संकल्प की नींव में साधना का जल सिंचन किया करती थी ।
कई भोली-भाली मूर्ख बच्चियाँ ऐसी होती हैं, जिन्होंने दो चार सप्ताह ध्यान-भजन किया, दो चार महीने साधना की और चिल्लाने लग गयीं कि ‘मैं अब शादी नहीं करूँगी, मैं अब साध्वी बन जाऊँगी, संन्यासिनी बन जाऊँगी, साधना करूँगी’ साधन-भजन की शक्ति बढ़ने के पहले ही चिल्लाने लग गयीं ।
वे ही बच्चियाँ दो-चार साल बाद मेरे पास आयीं, देखा तो उन्होंने शादी कर ली थी और अपना नन्हा-मुन्ना बेटा-बेटी ले आकर मुझसे आशीर्वाद माँग रही थीं कि मेरे बच्चे को आशीर्वाद दें कि इसका कल्याण हो ।
मैंने कहाः अरे ! तू तो बोलती थी, शादी नहीं करूँगी, संन्यास लूँगी, साधना करूँगी और फिर यह संसार का झमेला?”
साधना की केवल बातें मत करो, काम करो, बाहर घोषणा मत करो, भीतर-ही-भीतर परिपक्व बनते जाओ । जैसे स्वाति नक्षत्र में आकाश से गिरती जल की बूँद को पका-पकाकर मोती बना देती है, ऐसे ही तुम भी अपनी भक्ति की कुंजी गुप्त रखकर भीतर-ही-भीतर उसकी शक्ति को बढ़ने दो । साधना की बात किसी को बताओ नहीं । जो अपने परम हितैषी हों, भगवान के सच्चे भक्त हों, श्रेष्ठ पुरुष हों, सदगुरु हों केवल उनसे ही अपनी अंतरंग साधना की बात करो । अंतरंग साधना के विषय में पूछो । अपने आध्यात्मिक अनुभव जाहिर करने से साधना का ह्रास होता है और गोप्य रखने से साधना में दिव्यता आती है ।
मैं जब घर में रहता था, तब युक्ति से साधन-भजन करता था और भाई को बोलता थाः थोड़े दिन भजन करने दो, फिर दुकान पर बैठूँगा । अभी अनुष्ठान चल रहा है । एक पूरा होता तो कहता, अभी एक बाकी है । फिर थोड़े दिन दुकान पर जाता । फिर उसको बोलताः ‘मुझे कथा में जाना है ।’ तो भाई चिढ़कर कहताः “रोज-रोज ऐसा कहता है, सुधरता नहीं ?” मैं कहताः “सुधर जाऊँगा ।”
ऐसा करते-करते जब अपनी वृत्ति पक्की हो गयी, तब मैंने कह दियाः ‘मैं दुकान पर नहीं बैठूँगा, जो करना हो सो कर लो । यदि पहले से ही ऐसे बगावत के शब्द बोलता तो वह कान पकड़कर दुकान पर बैठा देता ।
मेरी साधना को रोककर मुझे अपने जैसा संसारी बनाने के लिए रिश्तेदारों ने कई उपाय आजमाये थे । मुझे फुसला कर सिनेमा दिखाने ले जाते, जिससे संसार का रंग लग जाये, ध्यान-भजन की रूचि नष्ट हो जाये । फिर जल्दी-जल्दी शादी करा दी । हम दोनों को कमरे में बन्द कर देते ताकि भगवान से प्यार न करूँ और संसारी हो जाऊँ । अहाहा….! संसारी लोग साधना से कैसे-कैसे गिरते-गिराते हैं । मैं भगवान से आर्तभाव से प्रार्थना किया करता कि ‘हे प्रभु ! मुझे बचाओ ।’ आँखों से झर-झर आँसू टपकते । उस दयालु देव की कृपा का वर्णन नहीं कर सकता ।
मैं पहले भजन नहीं करता तो घरवाले बोलतेः ‘भजन करो…. भजन करो…. ‘ जब मैं भजन करने लगा तो लोग बोलने लगेः ‘रुको.. रुको… इतना सारा भजन नहीं करो ।’ जो माँ पहले बोलती थी कि ‘ध्यान करो ।’ फिर वही बोलने लगी कि ‘इतना ध्यान नहीं करो । तेरा भाई नाराज होता है । मैं तेरी माँ हूँ । मेरी आज्ञा मानो ।’
अभी जहाँ भव्य आश्रम है, वहाँ पहले ऐसा कुछ नहीं था । कँटीले झाड़-झंखाड़ तथा भयावह वातावरण था वहाँ । उस समय जब हम मोक्ष कुटीर बना रहे थे, तब भाई माँ को बहकाकर ले आया और बोलाः “सात सात साल चला गया था । अब गुरुजी ने भेजा है तो घर में रहो, दुकान पर बैठो । यहाँ जंगल में कुटिया बनवा रहे हो! इतनी दूर तुम्हारे लिए रोज-रोज टिफिन कौन लायेगा?”
माँ भी कहने लगी “मैं तुम्हारी माँ हूँ न? तुम मातृ आज्ञा शिरोधार्य करो, यह ईंटें वापस कर दो । घर में आकर रहो । भाई के साथ दुकान पर बैठा करो ।”
यह माँ की आज्ञा नहीं थी, ममता की आज्ञा थी और भाई की चाबी भराई हुई आज्ञा थी । माँ ऐसी आज्ञा नहीं देती ।
भाई मुझे घर ले जाने के लिए जोर मार रहा था । भाभी भी कहने लगीः “यहाँ उजाड़ कोतरों में अकेले पड़े रहोगे? क्या हर रोज मणिनगर से आपके भाई टिफिन लेकर यहाँ आयेंगे?”
मैंने कहाः “ना…. ना… आपका टिफिन हमको नहीं चाहिए । उसे अपने पास ही रखो । यहाँ आकर तो हजारों लोग भोजन करेंगे । हमारा टिफिन वहाँ से थोड़े ही मँगवाना है?”
उन लोगों को यही चिन्ता होती थी कि यह अकेला यहाँ रहेगा तो मणिनगर से इसके लिए खाना कौन लायेगा? उनको पता नहीं कि जिसके सात साल साधना में गये हैं वह अकेला नहीं है, विश्वेश्वर उसके साथ है । बेचारे संसारियों की बुद्धि अपने ढंग की होती है ।
माँ मुझे दोपहर को समझाने आयी थी । उसके दिल में ममता थी । यहाँ पर कोई पेड़ नहीं था, बैठने की जगह नहीं थी । छोटे-बड़े गड्डे थे । जहाँ मोक्ष कुटीर बनी है, वहाँ खिजड़े का पेड़ थाष वहाँ लोग दारू छिपाते थे । कैसी-कैसी विकट परिस्थितियाँ थीं, लेकिन हमने निर्णय कर लिया था कि कुछ भी हो, हम तो अपनी राम-नाम की शराब पियेंगे, पिलायेंगे । ऐसे ही कर्मावती ने भी निर्णय कर लिया था लेकिन उसे भीतर छिपाये थी । जगत भक्ति नहीं और करने दे नहीं । दुनिया दोरंगी है ।
दुनिया कहे मैं दुरंगी पल में पलटी जाऊँ ।
सुख में जो सोते रहें वा को दुःखी बनाऊँ । ।
आत्मज्ञान या आत्मसाक्षात्कार तो बहुत ऊँची चीज होती है । तत्त्वज्ञानी के आगे भगवान कभी अप्रकट रहता ही नहीं । आत्मसाक्षात्कारी तो स्वयं भगवत्स्वरूप हो जाते हैं । वे भगवान को बुलाते नहीं । वे जानते हैं कि रोम-रोम में, अनंत-अनंत ब्रह्माण्डों में जो ठोस भरा है वह अपने हृदय में भी है । ज्ञानी अपने हृदय में ईश्वर को जगा लेते हैं, स्वयं ईश्वरस्वरूप बन जाते हैं । वे पक्के गुरु के चेले होते हैं, ऐसे वैसे नहीं होते ।
कर्मावती 18 साल की हुई । उसका साधन-भजन ठीक से आगे बढ़ रहा था । बेटी उम्र लायक होने से पिता परशुरामजी को भी चिन्ता होने लगी कि इस कन्या को भक्ति का रंग लग गया है । यदि शादी के लिए ना बोल देगी तो? ऐसी बातों में मर्यादा, शर्म, संकोच खानदानी के ख्यालों का वह जमाना था । कर्मावती की इच्छा न होते हुए भी पिता ने उसकी मँगनी करा दी । कर्मावती कुछ नहीं बोल पायी ।
शादी का दिन नजदीक आने लगा । वह रोज परमात्मा से प्रार्थना करने लगी और सोचने लगीः “मेरा संकल्प तो है परमात्मा को पाने का, ईश्वर के ध्यान में तल्लीन रहने का । शादी हो जायेगी तो संसार के कीचड़ में फँस मरूँगी । अगले कई जन्मों में भी मेरे कई पति होंगे, माता पिता होंगे, सास-श्वसुर होंगे । उनमें से किसी ने मृत्यु से नहीं छुड़ाया । मुझे अकेले ही मरना पड़ा । अकेले ही माता के गर्भ में उल्टा होकर लटकना पड़ा । इस बार भी मेरे परिवारवाले मुझे मृत्यु से नहीं बचायेंगे ।
मृत्यु आकर जब मनुष्य को मार डालती है, तब परिवाले सह लेते हैं कुछ कर नहीं पाते, चुप हो जाते हैं । यदि मृत्यु से सदा के लिए पीछा छुड़ानेवाले ईश्वर के रास्ते पर चलते हैं तो कोई जाने नहीं देता ।
हे प्रभु ! क्या तेरी लीला है ! मैं तुझे नहीं पहचानती लेकिन तू मुझे जानता है न? मैं तुम्हारी हूँ । हे सृष्टिकर्ता ! तू जो भी है, जैसा भी है, मेरे हृदय में सत्प्रेरणा दे ।”
इस प्रकार भीतर-ही-भीतर भगवान से प्रार्थना करके कर्मावती शांत हो जाती तो भीतर से आवाज आतीः “हिम्मत रखो…. डरो नहीं…. पुरुषार्थ करो । मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ ।” कर्मावती को कुछ तसल्ली-सी मिल जाती ।
शादी का दिन नजदीक आने लगा तो कर्मावती फिर सोचने लगीः “मैं कुंवारी लड़की… सप्ताह के बाद शादी हो जायेगी । मुझे घसीट के ससुराल ले जायेंगे । अब मेरा क्या होगा…?” ऐसा सोचकर वह बेचारी रो पड़ती । अपने पूजा के कमरे में रोते-रोते प्रार्थना करती, आँसू बहाती । उसके हृदय पर जो गुजरता था उसे वह जानती थी और दूसरा जानता था परमात्मा ।
‘शादी को अब छः दिन बचे… पाँच दिन बचे…. चार दिन बचे ।’ जैसे कोई फाँसी की सजा पाया हुआ कैदी फाँसी की तारीख सुनकर दिन गिन रहा हो, ऐसे ही वह दिन गिन रही थी ।
शादी के समय कन्या को वस्त्राभूषण से, गहने-अलंकारों से सजाया जाता है, उसकी प्रशंसा की जाती है । कर्मावती यह सब सांसारिक तरीके समझते हुए सोच रही थी कि “जैसे बैल को पुचकार कर गाड़ी में जोता जाता है, ऊँट को पुचकार कर ऊँटगाड़ी में जोता जाता है, भैंस को पुचकार कर भैंसगाड़ी में जोता जाता है, प्राणी को फुसलाकर शिकार किया जाता है वैसे ही लोग मुझे पुचकार-पुचकार कर अपना मनमाना मुझसे करवा लेंगे । मेरी जिन्दगी से खेलेंगे ।”
“हे परमात्मा ! हे प्रभु ! जीवन इन संसारी पुतलों के लिए नहीं, तेरे लिये मिला है । हे नाथ ! मेरा जीवन तेरे काम आ जाये, तेरी प्राप्ति में लग जाये । हे देव ! हे दयालु ! हे जीवनदाता !….” ऐसे पुकारते-पुकारते कर्मावती कर्मावती नहीं रहती थी, ईश्वर की पुत्री हो जाती थी । जिस कमरे में बैठकर वह प्रभु के लिए रोया करती थी, आँसू बहाया करती थी । जिस कमरे में बैठकर वह प्रभु के लिए रोया करती थी, आँसू बढ़ाया करती थी वह कमरा भी कितना पावन हो गया होगा । !
शादी के अब तीन दिन बचे थे…. दो दिन बचे थे… रात को नींद नहीं, दिन को चैन नहीं । रोते-रोते आँखें लाल हो गयीं । माँ पुचकारती, भाभी दिलासा देती और भाई रिझाता लेकिन कर्मावती समझती कि यह सारा पुचकार बैल को गाड़ी में जोतने के लिए हैं…. यह सारा स्नेह संसार के घट में उतारने के लिए है….
“हे भगवान ! मैं असहाय हूँ…. निर्बल हूँ…. हे निर्बल के बल राम ! मुझे सत्प्रेरणा दे…. मुझे सन्मार्ग दिखा ।”
कर्मावती की आँखों में आँसू हैं… हृदय में भावनाएँ छलक रही हैं और बुद्धि में द्विधा हैः ‘क्या करूँ? शादी को इन्कार तो कर नहीं सकती…. मेरा स्त्री शरीर…? क्या किया जाये?’
भीतर से आवाज आयीः “तू अपने के स्त्री मत मान, अपने को लड़की मत मान, तू अपने को भगवदभक्त मान, आत्मा मान । अपने को स्त्री मानकर कब तक खुद को कोसती रहेगी? अपने को पुरुष मान कर कब तक बोझा ढोती रहेगी? मनुष्यत्व तो तुम्हारा चोला है । शरीर का एक ढाँचा है । तेरा कोई आकार नहीं है । तू तो निराकार बलस्वरूप आत्मा है । जब-जब तू चाहेगी, तब-तब तेरा मार्गदर्शन होता रहेगा । हिम्मत मत हार । पुरुषार्थ परम देव है । हजार विघ्न-बाधाएँ आ जायें, फिर भी अपने पुरुषार्थ से नहीं हटना ।”
तुम साधना के मार्ग पर चलते हो तो जो भी इन्कार करते हैं, पराये लगते हैं, शत्रु जैसे लगते हैं वे भी, जब तुम साधना में उन्नत होंगे, ब्रह्मज्ञान में उन्नत होंगे तब तुमको अपना मानने लग जायेंगे, शत्रु भी मित्र बन जायेंगे । कई महापुरुषों का यह अनुभव हैः
आँधी और तूफान हमको न रोक पाये । मरने के सब इरादे जीने के काम आये । हम भी हैं तुम्हारे कहने लगे पराये । ।
कर्मावती को भीतर से हिम्मत मिली । अब शादी को एक ही दिन बाकी रहा । सूर्य ढलेगा… शाम होगी, रात्री होगी…. फिर सूर्योदय होगा… और शादी का दिन…. इतने ही घण्टे बीच में? अब समय नहीं गँवाना है । रात सोकर या रोकर नहीं गँवानी है । आज की रात जीवन या मौत की निर्णायक रात होगी ।
कर्मावती ने पक्का निर्णय कर लियाः “चाहे कुछ भी हो जाये, कल सुबह बारात के घर के द्वार पर आये उसके पहले यहाँ से भागना पड़ेगा । बस यही एक मार्ग है, यही आखिरी फैसला है ।”
क्षण….. मिनट…. और घण्टे बीत रहे थे । परिवार वाले लोग शादी की जोरदार तैयारियाँ कर रहे थे । कल सुबह बारात का सत्कार करना था, इसका इंतजाम हो रहा था । कई सगे-सम्बन्थी-मेहमान घर पर आये हुए थे । कर्मावती अपने कमरे में यथायोग्य मौके के इंतजार में घण्टे गिन रही थी ।
दोपहर ही…. शाम हुई…. सूर्य ढला…. कल के लिए पूरी तैयारियाँ हो चुकी थीं । रात्रि का भोजन हुआ, दिन के परिश्रम से थके लोग रात्रि को देरी से बिस्तर पर लेट गये । दिन भर जहाँ शोरगुल मचा था, वहाँ शांति छा गयी ।
ग्यारह बजे… दीवार की घड़ी ने डंके बजाये… फिर टिक्… टिक्…. टिक्… टिक्…क्षण मिनट में बदल रही हैं… घड़ी का काँटा आगे सरक रहा है…. सवा ग्यारह….. साढ़े ग्यारह…. फिर रात्री के नीरव वातावरण में घड़ी का एक डंका सुनाई पड़ा… टिक्….टिक्….टिक्…. पौने बारह….. घड़ी आगे बढ़ी… पन्द्रह मिनट और बीते…. बारह बजे… घड़ी ने बारह डंके बजाना शुरु किया…. कर्मावती गिनने लगीः एक… दो… तीन… चार… दस… ग्यारह… बारह ।
अब समय हो गया । कर्मावती उठी । जाँच लिया कि घर में सब नींद में खुर्राटे भर रहे हैं । पूजा घर में बाँकेबिहारी कृष्ण कन्हैया को प्रणाम किया… आँसू भरी आँखों से उसे एकटक निहारा… भावविभोर होकर अपने प्यारे परमात्मा के रूप को गले लगा लिया और बोलीः “अब मैं आ रही हूँ तेरे द्वार…. मेरे लाला….!”
चुपके से द्वार खोला, दबे पाँव घर से बाहर निकली । उसने आजमाया कि आँगन में भी कोई जागता नहीं है ? …. कर्मावती आगे बढ़ी । आँगन छोड़कर गली में आ गयी । फिर सर्राटे से भागने लगी । वह गलियाँ पार करती हुई रात्रि के अंधकार में अपने को छुपाती नगर से बाहर निकल गयी और जंगल का रास्ता पकड़ लिया । अब तो वह दौड़ने लगी थी । घरवाले संसार के कीचड़ में उतारें उसके पहले बाँके बिहारी गिरधर गोपाल के धाम में उसे पहुँच जाना था । वृन्दावन कभी देखा नहीं था, उसके मार्ग का भी उसे पता नहीं था लेकिन सुन रखा था कि इस दिशा में है ।
कर्मावती भागती जा रही है । कोई देख लेगा अथवा घर में पता चल जायेगा तो लोग खोजने निकल पड़ेंगे…. पकड़ी जाऊँगी तो सब मामला चौपट हो जायेगा । संसारी माता-पिता इज्जत-आबरू का ख्याल करके शादी कराके ही रहेंगे । चौकी पहरा बिठा देंगे । फिर छूटने का कोई उपाय नहीं रहेगा । इस विचार से कर्मावती के पैरों में ताकत आ गयी । वह मानों, उड़ने लगी । ऐसे भागी, ऐसे भागी कि बस…. मानों, बंदूक लेकर कोई उसके पीछे पड़ा हो ।
सुबह हुई । उधर घर में पता चला कि कर्मावती गायब है । अरे ! आज तो हक्के-बक्के से हो गये । इधर-उधर छानबीन की, पूछताछ की, कोई पता नहीं चला । सब दुःखी हो गये । परशुराम भक्त थे, माँ भी भक्त थी । फिर भी उन लोगों को समाज में रहना था । उन्हें खानदानी इज्जत-आबरू की चिन्ता थी । घर में वातावरण चिन्तित बन गया कि ‘बारातवालों को क्या मुँह दिखायेंगे? क्या जवाब देंगे? समाज के लोग क्या कहेंगे?”
फिर भी माता-पिता के हृदय में एक बात की तसल्ली थी कि हमारी बच्ची किसी गलत रास्ते पर नहीं गयी है, जा ही नहीं सकती । उसका स्वभाव, उसके संस्कार वे अच्छी तरह जानते थे । कर्मावती भगवान की भक्त थी । कोई गलत मार्ग लेने का वह सोच ही नहीं सकती थी । आजकल तो कई लड़कियाँ अपने यार-दोस्त के साथ पलायन हो जाती है । कर्मावती ऐसी पापिनी नहीं थी ।
परशुराम सोचते हैं कि बेटी परमात्मा के लिए ही भागी होगी, फिर भी क्या करूँ ? इज्जत का सवाल है । राजपुरोहित के खानदान में ऐसा हो? क्या किया जाये? आखिर उन्होंने अपने मालिक शेखावत सरदार की शरण ली । दुःखी स्वर में कहाः “मेरी जवान बेटी भगवान की खोज में रातोंरात कहीं चली गयी है । आप मेरी सहायता करें । मेरी इज्जत का सवाल है ।”
सरदार परशुराम के स्वभाव से परिचित थे । उन्होंने अपने घुड़सवार सिपाहियों को चहुँ ओर कर्मावती की खोज में दौड़ाया । घोषणा कर दी कि जंगल-झाड़ियों में, मठ-मंदिरों में, पहाड़-कंदराओं में, गुरुकुल-आश्रमों में – सब जगह तलाश करो । कहीं से भी कर्मावती को खोज कर लाओ । जो कर्मावती को खोजकर ले आयेगा, उसे दस हजार मुद्रायें इनाम में दी जायेंगी ।
घुड़सवार चारों दिशा में भागे । जिस दिशा में कर्मावती भागी थी, उस दिशा में घुड़सवारों की एक टुकड़ी चल पड़ी । सूर्योदय हो रहा था । धरती पर से रात्रि ने अपना आँचल उठा लिया था । कर्मावती भागी जा रही थी । प्रभात के प्रकाश में थोड़ी चिन्तित भी हुई कि कोई खोजने आयेगा तो आसानी से दिख जाऊँगी, पकड़ी जाऊँगी । वह वीरांगना भागी जा रही है और बार-बार पीछे मुड़कर देख रही है ।
दूर-दूर देखा तो पीछे रास्ते में धूल उड़ रही थी । कुछ ही देर में घुड़सवारों की एक टुकड़ी आती हुई दिखाई दी । वह सोच रही हैः “हे भगवान ! अब क्या करूँ? जरूर ये लोग मुझे पकड़ने आ रहे हैं । सिपाहियों के आगे मुझ निर्बल बालिका क्या चलेगा? चहुँओर उजाला छा गया है । अब तो घोड़ों की आवाज भी सुनाई पड़ रही है । कुछ ही देर में वे लोग आ जायेंगे । सोचने का भी समय अब नहीं रहा ।”
कर्मावती ने देखाः रास्ते के किनारे मरा हुआ एक ऊँट पड़ा था । पिछले दिन ही मरा था और रात को सियारों ने उसके पेट का माँस खाकर पेट की जगह पर पोल बना दिया था । कर्मावती के चित्त में अनायास एक विचार आया । उसने क्षणभर में सोच लिया कि इस मरे हुए ऊँट के खाली पेट में छुप जाऊँ तो उन कातिलों से बच सकती हूँ । वह मरे हुए, सड़े हुए, बदबू मारनेवाले ऊँट के पेट में घुस गयी ।
घुड़सवार की टुकड़ी रास्ते के इर्दगिर्द पेड़-झाड़ी-झाँखड़, छिपने जैसे सब स्थानों की तलाश करती हुई वहाँ आ पहुँची । सिपाही मरे हुए ऊँट के पाय आये तो भयंकर दुर्गन्ध । वे अपना नाक-मुँह सिकोड़ते, बदबू से बचने के लिए आगे बढ़ गये । वहाँ तलाश करने जैसा था भी क्या ?
कर्मावती ऐसी सिर चकरा देने वाली बदबू के बीच छुपी थी । उसका विवेक बोल रहा था कि संसार के विकारों की बदबू से तो इस मरे हुए ऊँट की बदबू बहुत अच्छी है । संसार के काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर की जीवनपर्यन्त की गन्दगी से तो यह दो दिन की गन्दगी अच्छी है । संसार की गन्दगी तो हजारों जन्मों की गन्दगी में त्रस्त करेगी, हजारों-लाखों बार बदबूवाले अंगों से गुजरना पड़ेगा, कैसी-कैसी योनियों में जन्म लेना पड़ेगा । मैं वहाँ से अपनी इच्छा के मुताबिक बाहर नहीं निकल सकती । ऊँट के शरीर से मैं कम-से-कम अपनी इच्छानुसार बाहर तो निकल जाऊँगी ।’
कर्मावती को मरे हुए, सड़ चुके ऊँट के पेट के पोल की वह बदबू इतनी बुरी नहीं लगी, जितनी बुरी संसार के विकारों की बदबू लगी । कितनी बुद्धिमान रही होगी वह बेटी !
कर्मावती पकड़े जाने के डर से उसी पोल में एक दिन.. दो दिन… तीन दिन तक पड़ी रही । जल्दबाजी करने से शायद मुसीबत आ जाये ! घुड़सवार खूब दूर तक चक्कर लगाकर दौड़ते, हाँफते, निराश होकर वापस उसी रास्ते से गुजर रहे थे । वे आपस में बातचीत कर रहे थे कि “भाई ! वह तो मर गयी होगी । किसी कुएँ या तालाब में गिर गयी होगी । अब उसका हाथ लगना मुश्किल है ।” पोल में पड़ी कर्मावती ये बातें सुन रही थी ।
सिपाही दूर-दूर चले गये । कर्मावती को पता चला फिर भी दो-चार घण्टे और पड़ी रही । शाम ढली, रात्री हुई, चहुँ ओर अँधेरा छा गया । जब जंगल में सियार बोलने लगे, तब कर्मावती बाहर निकली । उसने इधर-उधर देख लिया । कोई नहीं था । भगवान को धन्यवाद दिया । फिर भागना शुरु किया । भयावह जंगलों से गुजरते हुए हिंसक प्राणियों की डरावनी आवाजें सुनती कर्मावती आगे बढ़ी जा रही थी । उस वीर बालिका को जितना संसार का भय था, उतना क्रूर प्राणियों का भय नहीं था । वह समझती थी कि “मैं भगवान की हूँ और भगवान मेरे हैं । जो हिंसक प्राणी हैं वे भी तो भगवान के ही हैं, उनमें भी मेरा परमात्मा है । वह परमात्मा प्राणियों को मुझे खा जाने की प्रेरणा थोड़े ही देगा ! मुझे छिप जाने के लिए जिस परमात्मा ने मरे हुए ऊँट की पोल दी, सिपाहियों का रुख बदल दिया वह परमात्मा आगे भी मेरी रक्षा करेगा । नहीं तो यह कहाँ रास्ते के किनारे ही ऊँट का मरना, सियारों का माँस खाना, पोल बनना, मेरे लिए घर बन जाना? घर में घर जिसने बना दिया वह परम कृपालु परमात्मा मेरा पालक और रक्षक है ।”
ऐसा दृढ़ निश्चय कर कर्मावती भागी जा रही है । चार दिन की भूखी-प्यासी वह सुकुमार बालिका भूख-प्यास को भूलकर अपने गन्तव्य स्थान की तरफ दौड़ रही है । कभी कहीं झरना मिल जाता तो पानी पी लेती । कोई जंगली फल मिलें तो खा लेती, कभी-कभी पेड़ के पत्ते ही चबाकर क्षुधा-निवृत्ति का एहसास कर लेती ।
आखिर वह परम भक्त बालिका वृन्दावन पहुँची । सोचा कि इसी वेश में रहूँगी तो मेरे इलाके के लोग पहचान लेंगे, समझायेंगे, साथ चलने का आग्रह करेंगे । नहीं मानूँगी जबरन पकड़कर ले जायेंगे । इससे अपने को छुपाना अति आवश्यक है । कर्मावती ने वेश बदल दिया । सादा फकीर-वेश धारण कर लिया । एक सादा श्वेत वस्त्र, गले में तुलसी की माला, ललाट पर तिलक । वृन्दावन में रहनेवाली और भक्तिनों जैसी भक्तिन बन गयी ।
कर्मावती के कुटुम्बीजन वृन्दावन आये । सर्वत्र खोज की । कोई पता नहीं चला । बाँके बिहारी के मंदिर में रहे, सुबह शाम छुपकर तलाश की लेकिन उन दिनों कर्मावती मंदिर में क्यों जाये ? बुद्धिमान थी वह ।
वृन्दावन में ब्रह्मकुण्ड के पास एक साधु रहते थे । जहाँ भूले-भटके लोग ही जाते वह ऐसी जगह थी, वहाँ कर्मावती पड़ी रही । वह अधिक समय ध्यानमग्न रहा करती, भूख लगती तब बाहर जाकर हाथ फैला देती । भगवान की प्यारी बेटी भिखारी के वेश में टुकड़ा खा लेती ।
जयपुर से भाई आया, अन्य कुटुम्बीजन आये । वृन्दावन में सब जगह खोजबीन की । निराश होकर सब लौट गये । आखिर पिता राजपुरोहित परशुराम स्वयं आये । उन्हें हृदय में पूरा यकीन था कि मेरी कृष्णप्रिया बेटी श्रीकृष्ण के धाम के अलावा और कहीं न जा सकती । सुसंस्कारी, भगवदभक्ति में लीन अपनी सुकोमल, प्यारी बच्ची के लिए पिता का हृदय बहुत व्यथित था । बेटी की मंगल भावनाओं को कुछ-कुछ समझनेवाले परशुराम का जीवन निस्सार-सा हो गया था । उन्होंने कैसे भी करके कर्मावती को खोजने का दृढ़ संकल्प कर लिया । कभी किसी पेड़ पर तो कभी किसी पेड़ पर चढ़कर मार्ग के पासवाले लोगों की चुपके से निगरानी रखते, सुबह से शाम तक रास्ते गुजरते लोगों को ध्यानपूर्वक निहारते कि शायद, किसी वेश में छिपी हुई अपनी लाडली का मुख दिख जाय !
पेड़ों पर से एक साध्वी को, एक-एक भक्तिन को, भक्त का वेश धारण किये हुए एक-एक व्यक्ति को परशुराम बारीकी से निहारते । सुबह से शाम तक उनकी यही प्रवृत्ति रहती । कई दिनों के उनका तप भी फल गया । आखिर एक दिन कर्मावती पिता की जासूस दृष्टि में आ ही गयी । परशुराम झटपट पेड़ से नीचे उतरे और वात्सल्य भाव से, रूँधे हुए हृदय से ‘बेटी…. बेटी…’ कहते हुए कर्मावती का हाथ पकड़ लिया । पिता का स्नेहिल हृदय आँखों के मार्ग से बहने लगा । कर्मावती की स्थिति कुछ और ही थी । ईश्वरीय मार्ग में ईमानदारी से कदम बढ़ानेवाली वह साधिका तीव्र विवेक-वैराग्यवान हो चली थी, लौकिक मोह-ममता से सम्बन्धों से ऊपर उठ चुकी थी । पिता की स्नेह-वात्सल्यरूपी सुवर्णमय जंजीर भी उसे बाँधने में समर्थ नहीं थी । पिता के हाथ से अपना हाथ छुड़ाते हुए बोलीः
‘मैं तो आपकी बेटी नहीं हूँ । मैं तो ईश्वर की बेटी हूँ । आपके वहाँ तो केवल आयी थी कुछ समय के लिए । गुजरी थी आपके घर से । अगले जन्मों में भी मैं किसी की बेटी थी, उसके पहले भी किसी की बेटी थी । हर जन्म में बेटी कहने वाले बाप मिलते रहे हैं, माँ कहने वाले बेटे मिलते रहे हैं, पत्नी कहने वाले पति मिलते रहे हैं । आखिर में कोई अपना नहीं रहता है । जिसकी सत्ता से अपना कहा जाता है, जिससे यह शरीर टिकता है वह आत्मा-परमात्मा, वे श्रीकृष्ण ही अपने हैं । बाकी सब धोखा-ही-धोखा है – सब मायाजाल है ।”
राजपुरोहित परशुराम शास्त्र के अभ्यासी थे, धर्मप्रेमी थे, संतों के सत्संग में जाया करते थे । उन्हें बेटी की बात में निहित सत्य को स्वीकार करना पड़ा । चाहे पिता हो, चाहे गुरु हो सत्य बात तो सत्य ही होती है । बाहर चाहे कोई इन्कार कर दे, किंतु भीतर तो सत्य असर करता ही है ।
अपनी गुणवान संतान के प्रति मोहवाले पिता का हृदय माना नहीं । वे इतिहास, पुराण और शास्त्रों में से उदाहरण ले-लेकर कर्मावती को समझाने लगे । बेटी को समझाने के लिए राजपुरोहित ने अपना पूरा पांडित्य लगा दिया पर कर्मावती….? पिता के विद्वतापूर्ण प्रश्न सुनते-सुनते यही सोच रही थी कि पिता का मोह कैसे दूर हो सके । उसकी आँखों में भगवदभाव के आँसू थे, ललाट पर तिलक, गले में तुलसी की माला । मुख पर भक्ति का ओज आ गया था । वह आँखे बन्द करके ध्यान किया करती थी । इससे आँखों में तेज और चुम्बकत्व आ गया था । पिता का मंगल हो, पिता का मेरे प्रति मोह न रहे । ऐसी भावना कर हृदय में दृढ़ संकल्प कर कर्मावती ने दो-चार बार पिता की तरफ निहारा । वह पण्डित तो नहीं थी लेकिन जहाँ से हजारों-हजारों पण्डितों को सत्ता-स्फूर्ति मिलती है, उस सर्वसत्ताधीश का ध्यान किया करती थी । आखिर पंडितजी की पंडिताई हार गयी और भक्त की भक्ति जीत गयी । परशुराम को कहना पड़ाः “बेटी ! तू सचमुच मेरी बेटी नहीं है, ईश्वर की बेटी है । अच्छा, तू खुशी से भजन कर । मैं तेरे लिए यहाँ कुटिया बनवा देता हूँ, तेरे लिए एक सुहावना आश्रम बनवा देता हूँ ।”
“नहीं, नहीं….” कर्मावती सावधान होकर बोलीः “यहाँ आप कुटिया बनायें तो कल माँ आयेगी, परसों भाई आयेगा, तरसों चाचा-चाची आयेंगे, फिर मामा-मामी आयेंगे । फिर से वह संसार चालू हो जायेगा । मुझे यह माया नहीं बढ़ानी है ।”
कैसा बच्ची का विवेक है ! कैसा तीव्र वैराग्य है ! कैसा दृढ़ संकल्प है ! कैसी साधना सावधानी है ! धन्य है कर्मावती !
परशुराम निराश होकर वापस लौट गये । फिर भी हृदय में संतोष था कि मेरा हक्क का अन्न था, पवित्र अन्न था, शुद्ध आजीविका थी तो मेरे बालक को भी नाहकर के विकार और विलास के बदले हक्क स्वरूप ईश्वर की भक्ति मिली है । मुझे अपने पसीने की कमाई का बढ़िया फल मिला । मेरा कुल उज्जवल हुआ । वाह…..!
परशुराम अगर तथाकथित धार्मिक होते, धर्मभीरू होते तो भगवान को उलाहना देतेः ‘भगवान ! मैंने तेरी भक्ति की, जीवन में सच्चाई से रहा और मेरी लड़की घर छोड़कर चली गयी? समाज में मेरी इज्जत लुट गयी…’ ऐसा विचार कर सिर पीटते ।
परशुराम धर्मभीरू नहीं थे । धर्मभीरू यानी धर्म से डरनेवाले लोग । ऐसे लोग कई प्रकार के वहमों में अपने को पीसते रहते हैं?
धर्म क्या है? ईश्वर को पाना ही धर्म है और संसार को ‘मेरा’ मानना संसार के भोगों में पड़ना अधर्म है । यह बात जो जानते हैं, वे धर्मवीर होते हैं ।
परशुराम बाहर से थोड़े उदास और भीतर से पूरे संतुष्ट होकर घर लौटे । उन्होंने राजा शेखावत सरदार से बेटी कर्मावती की भक्ति और वैराग्य की बात कही । वह बड़ा प्रभावित हुआ । शिष्यभाव से वृन्दावन में आकर उसने कर्मावती के चरणों में प्रणाम किया, फिर हाथ जोड़कर आदरभाव से विनीत स्वर में बोलाः
“हे देवी ! हे जगदीश्वरी ! मुझे सेवा का मौका दो । मैं सरदार होकर नहीं आया, आपके पिता का स्वामी होकर नहीं आया, आपके पिता का स्वामी हो कर नहीं आया अपितु आपका तुच्छ सेवक बनकर आया हूँ । कृपया इन्कार मत करना । ब्रह्मकुण्ड पर आपके लिए छोटी-सी कुटिया बनवा देता हूँ । मेरी प्रार्थना को ठुकराना नहीं ।”
कर्मावती ने सरदार को अनुमति दे दी । आज भी वृन्दावन में ब्रह्मकुण्ड के पास की वह कुटिया मौजूद है ।
पहले अमृत जैसा पर बाद में विष से बदत्तर हो, वह विकारों का सुख है । प्रारंभ में कठिन लगे, दुःखद लगे, बाद में अमृत से भी बढ़कर हो, वह भक्ति का सुख पाने के लिए बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, कई प्रकार की कसौटियाँ आती हैं । भक्त का जीवन इतना सादा, सीधा-सरल, आडम्बररहित होता है कि बाहर से देखने वाले संसारी लोगों को दया आती हैः ‘बेचारा भगत है, दुःखी है ।’ जब भक्ति फलती है, तब वे ही सुखी दिखने वाले हजारों लोग उस भक्त-हृदय की कृपा पाकर अपना जीवन धन्य करते हैं । भगवान की भक्ति की बड़ी महिमा है !
जय हो प्रभु ! तेरी जय हो । तेरे प्यारे भक्तों की जय हो । हम भी तेरी पावन भक्ति में डूब जायें । परमेश्वर! ऐसे पवित्र दिन जल्दी आयें । नारायण….! नारायण…..!! नारायण….!!